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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
पर वह साधना के क्षेत्र से पलायन न करे, प्रत्युत धैर्य-पूवक उन्हे सहते हुए सयम का परिपालन करे । यह अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है। इसमे साधक को सदा जागृत रहने का उपदेश दिया गया है । भगवान् महावीर का यह वज्र-आघोप स्पष्ट रूप से सुनाई दे रहा है- "सुपुप्त साधक मुनि नही है क्योकि मुनि सदा-सर्वदा जागृत रहता है।"१ वह कभी भी भाव-निद्रा मे नही सोता है, प्रमाद और आलस्य मे निमज्जित नही रहता है।
चतुर्थ-अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है । इसके चार उद्देश है । सम्यक्त्व का अर्थ है-श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास । प्रश्न हो सकता है कि साधक किस पर श्रद्धा करे? इस अध्ययन मे वताया गया है"अतीत, अनागत एव वर्तमान में होने वाले समस्त तीर्थकरो का एक ही उपदेश रहा है कि सर्व-प्राण, सर्व-भूत, सर्व-जीव और सर्व-सत्व की हिसा मत करो, उन्हे पीडा एव सताप-परिताप मत दो। यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है ।"२ अत सम्यक्त्व का अर्थ है-अहिसा दया सत्य आदि पर श्रद्धा-निष्ठा रखना एव यथाशक्ति उसे आचारण मे उतारने का प्रयत्न करना।
पञ्चम अध्ययन लोकसार है । वस्तुत लोक मे सारभूत तत्त्व है, तो केवल धर्म ही है । धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार सयम है और सयम का सार निर्वाण है । प्रस्तुत अध्ययन के छह उद्देशो मे इसी बात का विस्तृत विवेचन किया गया है।
पष्ठम अध्ययन का नाम धुत है। इसके पांच उद्देश है । धुत का अर्थ है--वस्तु पर लगे हुए मैल को दूर करके वस्तु को साफ करना । प्रस्तुत अध्ययन मे तप-सयम की साधना के द्वारा आत्मा पर लगे हुए कर्म मल को दूर करके आत्मा के शुद्ध रूप को प्रकट करने की प्रक्रिया वताई है।
सप्तम अध्ययन का नाम महापरिज्ञा है । इसके सात उद्देश है। आचार्य शीलाक का कहना है कि इसमे मोह के कारण उत्पन्न होने वाले परिपहो से वचने एव जन्त्र-मन्त्र से बचकर रहने का उपदेश दिया गया है । वर्तमान मे यह अध्ययन उपलब्ध नही है।
अष्टम अध्ययन विमोक्ष आठ उद्देशो में विभक्त है। इसमे कल्प्य-अकल्प्य वस्तुओ का वर्णन किया गया है और समान आचार वाले साधु की आहार-पानी से सेवा करने और असमान आचार वाले की सेवा न करने का उपदेश दिया गया। और हर परिस्थिति मे सयम-साधना मे दृढ रहने का उपदेश दिया है।
१ सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरति ।-आचाराग, १, ३, १, १ ' आचाराग, १, ४, १,१