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________________ आगम साहित्य एक अनुचिन्तन परिज्ञा से शस्त्रो का परित्याग करना चाहिए । वस्तुत इस अध्ययन मे भगवान् ने नि शस्त्रीकरण का उपदेश दिया है । उन्होने साधना-पथ पर गतिशील साधक को द्रव्य और भाव-तलवार आदि द्रव्य हथियारो एव राग-द्वेप आदि भाव शस्त्रो के परित्याग करने की बात कही है। जब तक साधक शस्त्रो के प्रयोग का त्याग नही करेगा, तब तक विश्व मे उसे शान्ति नहीं मिल सकती। प्रथम अध्ययन के सात उद्देश है। प्रथम उद्देश मे समुच्चय रूप से जीव हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया है। शेप छह उद्देशो मे पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय के जीवो का परिज्ञान कराया है और साधक को यह बोध कराया गया है कि इन योनियो मे तू स्वय उत्पन्न हो आया है । जगत के सभी जीव तुम्हारे जातीय भाई है। उन सब मे तुम्हारे जैसी ही चेतना शक्ति है, उन्हे भी तुम्हारे जैसा ही सुख-दुख का सवेदना होता है। अत किसी भी तरह के शस्त्र के द्वारा तुम्हे उनका वध नही करना चाहिए। उन्हे ताप-परिताप नही देना चाहिए । उन्हे बन्धन मे नही बान्धना चाहिए, गुलाम नही बनाना चाहिए । द्वितीय अध्ययन का नाम लोक-विजय है। यह छह उद्देशो में विभक्त है । इसमे यह बताया गया है कि व्यक्ति किस प्रकार से ससार मे आवद्ध होता है और कैसे छुटकारा पाता है। इसके छह उद्देशो मे क्रमश ये भाव वताए हैं-१ स्वजन-स्नेहियो के साथ निहित राग-भाव एव आसक्ति का परित्याग करना । २ सयम-साधना मे प्रविष्ट होने वाले साधक को शिथिलता का परित्याग करना । ३ अभिमान और धन-सम्पति मे सार दृष्टि नही रखना। ४ भोगासक्ति से दूर हटना । ५ लोक के आश्रय से सयम का पालन करना । ६ लोक के आश्रय से सयम का निर्वाह होने पर भी लोक मे ममत्व भाव नहीं रखना। लोक शब्द की विभिन्न प्रकार से व्याख्या की गई है । परन्तु प्रस्तुत मे लोक का अर्थ हैससार । वह दो प्रकार का है-१ द्रव्य लोक और २ भाव लोक । जिस क्षेत्र मे मनुष्य, पशु-पक्षी, देव-नारक आदि रहते है, उसे द्रव्य लोक कहते है और कषायो को भाव लोक कहते है। वस्तुत कपाय लोक ही द्रव्य लोक मे परिभ्रमण का मूल कारण है । इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ मे ससार की यह परिभापा दी है-जो गुण है, वे ही मूल स्थान है और जो मूल स्थान है, वे गुण है । इस गभीर वाक्य का स्पष्ट अभिप्राय यह है कि जहाँ विपय-कपाय है, वहाँ ससार है और जहाँ ससार है, वहाँ विपय-कषाय है । अत विपय-कषाय पर विजय पाने वाला साधक ही सच्चा विजेता है। तृतीय अध्ययन का नाम शीतोष्णीय है । प्रस्तुत मे शीत और उष्ण का अर्थ है- अनुकूल और प्रतिकूल परीपह । स्त्री और सत्कार परीपह को शीत और शेप २० परीपहो को उष्ण कहा है। साधना के मार्ग मे कभी अनुकूल परीपह उत्पन्न होते है, तो कभी प्रतिकूल । साधु को चाहिए कि अनुकूल एव प्रतिकूल सब तरह के परीपहो को समभाव पूर्वक सहन करे । परीषहो के उत्पन्न होने
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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