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________________ गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ प्रस्तुत आगम मे श्रमण भगवान् महावीर ने यह उपदेश दिया है कि साधु को अपने आचार का किस तरह परिपालन करना चाहिए। जैन परपरा की यह मान्यता रही है कि जो ज्ञान आचार का साकार रूप नहीं ले सकता, साधक की साधना मे आचरित नहीं होता, वह जीवन-विकास के लिए, साध्य को सिद्ध करने के लिए उपयोगी नही है। वही ज्ञान महत्वपूर्ण है और साधक को बन्धन से मुक्त करा सकता है, जो उसके आचरण मे उतरता है। प्रस्तुत आगम मे ज्ञान और आचार के सम्बन्ध तथा महत्व को बताया गया है । आचार एव साधना को प्राणवन्त बनाने के लिए इसमे' अहिसा का उपदेश देने के पहले यह बताया गया है कि ससार मे कितने प्रकार के जीव है। सर्व-प्रथम उनका परिबोध कराकर हिसा से विरक्त होने का उपदेश दिया है। इसमे भगवान् महावीर ने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि "जो साधक एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। जो व्यक्ति एक वस्तु की सब पर्यायो को जान लेता है, वह निश्चित रूप से सब वस्तुओ का परिज्ञान कर सकता है। जो एक आत्मा को स्व और पर पर्याय एव द्रव्य रूप से जान लेता है, वह पुद्गल की स्व और पर रूप सब पर्यायो को स्वत हो जान लेता है। क्योकि एक वस्तु को स्व और पर पर्याय की अपेक्षा से भिन्न करके उसके पूर्ण रूप को सम्पूर्ण ज्ञान की विवक्षा किए बिना जानना असभव है। अत एक वस्तु को सपूर्ण रूप से जानने का अर्थ है, समस्त वस्तुओ का स्व और पर पर्याय की अपेक्षा से सम्पूर्ण रूप से परिवोध करना। और जो सब वस्तुओ को सम्पूर्ण रूप से जान लेता है, वह एक वस्तु को भी सम्पूर्ण रूप से जान लेता है, यह तो स्वत ही स्पष्ट है। इस तरह आचाराग मे ज्ञान और साधना के सम्बन्ध मे गभीर वर्णन मिलता है। प्रथम-श्रुतस्कंघ प्रस्तुत आगम दो श्रुतस्कघो मे विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कध मे नव अध्ययन है। इसे ब्रह्मचर्य, अध्ययन भी कहते है । ब्रह्म का अर्थ है-सयम और चर्या का अभिप्राय है-आचरण करना । अत सयम का आचरण करना ब्रह्मचर्य है। आगम-साहित्य मे अहिसा, समभाव या समत्व की साधना का नाम ही सयम है । इसी साधना को सामायिक भी कहा है। प्रस्तुत आगम मे अहिसा और समत्व-भाव की साधना का उपदेश दिया गया है, अत इसका ब्रह्मचर्य अध्ययन नाम सार्थक है । इसके प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्र-परिज्ञा है। इसका तात्पर्य यह है कि 'ज्ञ' परिज्ञा से शस्त्रो को भयकरता एव उनके प्रयोग से बढने वाले वर-भाव और ससार अभिवृद्धि को जानकर, प्रत्याख्यान १जे एग जाणइ से सच जाणइ, जे सव्व जाणइ से एग जाणः । -आचाराग, ३, ४ २ स्थानाग सूत्र, ४२६-३०, समवायाग सूत्र, १७ 3 आवश्यक सूत्र, सामायिक अध्ययन.
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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