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आगम साहित्य एक अनुचिन्तन
लिखित ग्रन्थ बढ जाने से स्वाध्याय मे भी विघ्न पडता था। साधक स्वाध्याय, चिन्तन-मनन और निदिध्यासन की परम्परा को छोडकर पुस्तक-पन्नो के पीछे लग जाता । इसी कारण लेखन परम्परा को महत्व नही दिया गया। सत्य तो यह है कि उस युग मे लेखन परम्परा को दोपयुक्त माना गया। वृहत्कल्प और निशीथ भाष्य मे स्पष्ट शब्दो मे कहा गया कि "श्रमण जितनी बार पुस्तक को खोलता और बांधता है या जितने अक्षर पन्नो पर अकित करता है, लिखता है, उसे उतने ही चतुर्लघुको का प्रायश्चित आता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भाष्यकार के युग तक आगम लिखना दोप रूप माना जाता था। इसके बाद भी निकट भविष्य मे लिखने की परम्परा को कोई उत्साह या प्रेरणा मिली हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।
आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् द्वितीय आगम वाचना मथुरा मे हुई, इसका समय वीर-निर्वाण ८२७ से ८४० है और करीब इसी समय आचार्य नागार्जुन के सान्निध्य मे एक वाचना वल्लभी मे भी हुई और दोनो वाचनाओ मे एकादश अगो के पाठो को व्यवस्थित किया गया । इसी समय आचार्य आर्य-रक्षित ने अनुयोगद्वार सूत्र को रचना की। इसमे द्रव्य श्रुत के लिए 'पत्तय-पोत्थय लिहिअ'२ लेखन सामग्रो के द्वारा पन्नो पर लिखित आगम शब्द का प्रयोग किया है। इससे पहले किसी आगम के लिखने का प्रमाण नही मिलता। इससे हम ऐसा अनुमान कर सकते है कि भगवान् महावीर के निर्वाण की ६ वी शताब्दी के अन्त मे आगमो के लिखने की परम्परा चल पडी थी। परन्तु आगमो को लिपिवद्ध करने का स्पष्ट उल्लेख आचार्य देवद्धि गणी क्षमाश्रमण के सान्निध्य मे वल्लभी में हुई तृतीय आगम-परिपद् के समय का मिलता है।
साधु-साध्वियो की स्मृति को मन्द होते देखकर देवद्धिंगणी क्षमाश्रमण ने आगमो को लिखने का पूरी तरह प्रयत्न किया, ऐसा प्रतीत होता है। इसके पीछे उनका एक ही पावन-पुनीत ध्येय था कि समय की गति को देखकर भी न लिखने की रूढ परम्परा को ही चालू रखा गया, तो एक दिन श्रुतसाहित्य का ही लोप हो जायगा । अत उस महापुरुप ने युग के अनुरूप लेखन परम्परा को स्थापित करने की दिशा मे एक क्रान्तिकारी कदम उठाया । उसके बाद लेखन कला का निरन्तर विकास होता रहा । आगम ही क्या, निर्युक्त, चूणि, भाष्य, टीकाएँ आदि भी लिखी जाने लगी और आचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से सूत्र एव दर्शन साहित्य भी लिखा। वर्तमान युग का साधक तो लेखन से मुद्रण तक पहुंच गया है और प्रायश्चित्त की बात विस्मृति के एक अंधेरे कोने मे ढकेल दी गई है।
' जत्तियमेत्ता वारा, उ मुचई-बबई व जति वारा। जति अक्खराणि लिहति व तति लहुँगा न च आवजे ॥
-बृहत्कल्प भाष्य, उ. ३, गाथा ३८३१, निशीथ भाष्य, उ. १२, गाथा ४००८. २ अनुयोग-दार सूत्र, श्रुत-अधिकार ३७.