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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ टीका मे आचार्य हरिभद्र ने और निशीथ चूर्णिकार ने भी इसका उल्लेख किया है।' टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताडपत्र, सपुट का पत्र सचय और कर्म का अर्थ मषि एव लेखनी से लिखना किया है। और पोत्थारा या पोत्थकार शब्द का अर्थ टीकाकार ने पुस्तक के माध्यम से जीविका चलाना किया है। आगम के अतिरिक्त भी प्राचीन युग मे लेखन कला के प्रमाण मिलते है। बौद्ध और वैदिक साहित्य इसके साक्षी है । इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक उल्लेख भी उपलब्ध होते है। वीर-निर्वाण की द्वितीय शताब्दी मे आक्रान्ता सम्राट सिकन्दर के सेनापति निआस ने अपनी भारत-यात्रा के वर्णन मे लिखा है-"भारतवासी लोग कागज बनाते थे। ईसवी सन् की दूसरी शताब्दी मे लिखने के लिए ताड-पत्र और चतुर्थ शताब्दी मे भोज-पत्र का उपयोग किया जाता था। वर्तमान काल में उपलब्ध लेखन साहित्य मे ईसा की पाचवी शताब्दी के लिखित पत्र मिलते है।" उक्त अध्ययन के आधार पर हम यह कह सकते है कि भारत मे लिखने की कला प्राचीनतम है और हमारे प्रागेतिहासिक पूर्वज लेखन कला से परिचित थे। परन्तु फिर भी इस बात को स्वीकार करना पडेगा कि उस समय आगम-साहित्य को लिपि-बद्ध करने की परम्परा नही थी। उस युग मे श्रुत-साहित्य कण्ठस्थ करने एव करवाने की परम्परा रही है। जैनो मे ही नही, वैदिक एव बौद्ध सम्प्रदायो मे भी यही परम्परा थी और इसी कारण तीनो परम्पाओ मे आगम के लिए श्रुत, श्रुति एव सुत्त शब्द का प्रयोग हुआ। मागम-लेखन युग जैन परम्परा की मान्यता के अनुसार ज्ञान का विशाल पुञ्ज चौदह पूर्वो मे सचित है। वह विराट साहित्य कमी लिपिबद्ध नहीं किया गया । परन्तु आचार्यों ने उसकेलिए यह कल्पना अवश्य की, कि वह अमुक-अमुक परिमाण मे स्याही से लिपिबद्ध किया जा सकता है । चौदह पूर्व तो क्या, आगम युग मे एकादश अग भी लिपिबद्ध नहीं किए गए। उस युग मे ज्ञान को अक्षरो मे अकित करने की अपेक्षा, उसे मस्तिष्क एव हृदय मे अकित करने का अधिक महत्व था। लिखने मे समय अधिक लगता था और लिखित ग्रन्थो का प्रतिलेखन करने एव उन्हे सम्भालने मे भी समय व्यय करना पड़ता था। और ५ दशवकालिक टीका, पृ. २५, निशीथ चूणि, उ, १२ २ भारतीय प्राचीन लिपि माला, पृ.२ ३ वही वही १ भागम-साहित्य के लिखने की परम्परा का सकेत अनुयोग-द्वार सूत्र मे मिलता है। उसमे श्रुत अधिकार मे लेखन सामग्री के द्वारा लिखित पनो को द्रव्य-श्रुत कहा है। और इसका रचनाकाल वीर-निर्वाण की ६ वीं शताब्दी का अन्तिम समय माना जाता है । इससे पहले आगम-लिखने की परम्परा का सकेत नहीं मिलता।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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