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आगम साहित्य एक अनुचिन्तन
लेखन-परम्परा
आगम-साहित्य का अनुशीलन-परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखन कला का प्रार्दुभाव प्रागेतिहासिक युग मे हो गया था । भगवान् ऋपभदेव ने कर्म-भूमि के प्रारम्भ मे जनता को असि, कसि और मपि की कला सिखाई। तलवार अर्थात् राज्य और शासन करने की कला के साथ कृषि और लेखन की कला का भी उन्होने शिक्षण दिया। भगवान् ऋषभदेव द्वारा सिखाई गई ७२ कलाओ मे लेख-कला को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। भगवान ने अपनी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को लिपि एव लेखन कला की शिक्षा दी थी, उसे १८ लिपियाँ सिखाई और उसी के नाम पर लिपि को ब्राह्मी लिपि की सज्ञा दी गई । उक्त वर्णनो मे प्रयुक्त लेख-कला, लिपि एव मपि शब्द लेखन कला की परम्परा को कर्म-युग के प्रारम्भ तक ले जाते है। इसके अतिरिक्त प्रजापना सूत्र मे भी १८ लिपियो का उल्लेख मिलता है। भगवतो सूत्र मे मगलाचरण के रूप मे ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है । नन्दी सूत्र मे भी अक्षर-श्रुत तीन प्रकार का बताया है-१ सज्ञा-अक्षर, २ व्यजन-अक्षर, और ३. लब्धिअक्षर ।" इसमे प्रयुक्त सज्ञा-अक्षर का अर्थ है-अक्षर की आकृति, सस्थान और उस आकृति को दी गई 'अ, आ' आदि की सज्ञा । इससे उस युग मे लिपि के होने का प्रमाण मिलता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल मे लिखने की परम्परा रही है । परन्तु हम यह निश्चय पूर्वक नही कह सकते कि उस युग मे लेखन के साधन क्या थे। शिलापट एव गुफाओ की दीवारो पर अकित शब्द तो अवश्य मिलते है । परन्तु इसके अतिरिक्त और कोई सामग्री उपलब्ध हुई हो ऐसा ज्ञात नही होता । परन्तु आगमो मे पुस्तको एव लेखन सामग्री के सम्बन्ध मे अनेक साधनो का वर्णन अवश्य मिलता है। रायप्रश्नीय सूत्र में कम्विका-कामी, मोरा, गाँठ, लिपियासन-मपिपात्र-दवात, छन्दन-ढक्कन, साकली, मपि और लेखनी का उल्लेख मिलता है। प्रज्ञापना-सूत्र में 'पोत्थारा' शब्द का प्रयोग मिलता है, जिसका अर्थ हे पुस्तक लिखने वाला लेखक । उक्त आगम मे पुस्तक लेखन को शिल्पआर्य मे समाविष्ट किया है और अर्धमागधी भापा एव ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले लेखक को भापा आर्य कहा है। स्थानाग सूत्र मे पाच प्रकार की पुस्तको का उल्लेख किया है-१ गण्डी, २ कच्छवी, ३ मुण्ठि, ४ सपुट फलक, और ५ सृपाटिका । दशवकालिक-सूत्र को
' समवायाग सूत्र, ७२ ' विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति, १३२ ३ प्रज्ञापना सूत्र, पद १ 'नमो बंभीए लिविए -भगवती सूत्र ५ नन्दी सूत्र, ३८, मूल सुत्ताणि, पृ. ३०६ ६ प्रज्ञापना सूत्र, पद १
वही ८ स्थानांग सूत्र, स्थान ५
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