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________________ आगम साहित्य एक अनुचिन्तन इसमे कोई सन्देह नहीं है कि विभिन्न समयो मे हुई विभिन्न वाचनाओ मे आगम-साहित्य मे कुछ परिवर्तन भी हुआ है। स्थानाग और समवायाग मे जोडे गए कुछ पाठ तो स्पष्ट रूप से उत्तरकालीन परिलिक्षित होते है । सात निलव और नव गणो का उल्लेख स्पष्ट रूप से भगवान महावीर और सुधर्मा गणधर के बाद का है और भी कई स्थल ऐसे है, जो बाद मे सख्या की दृष्टि से उनके साथ जोड दिए गए है । भगवती सूत्र और प्रश्न व्याकरण-सूत्र का विषय वर्णन जैसा था, वर्तमान मे पूर्णत उसी रूप मे उपलब्ध नहीं होता। इतना होने पर भी हम यह नहीं कह सकते कि अग-साहित्य मे मौलिकता का सर्वथा अभाव है । उसमे बहुत भाग मौलिक है और भाषा एव शैली की अपेक्षा से वह प्राचीन भी है। आचाराग का प्रथम श्रुतस्कध भाषा एव शैली की दृष्टि से सब अगो से भिन्न है और आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन है । वर्तमान युग के भाषा शास्त्री और पाश्चात्य एव पौर्वात्य विद्वान उसे ईसा से चौथीपाँचवी शताब्दी पहले की रचना स्वीकार करते है । सूत्रकृताग, स्थानाग, भगवती आदि अग-सूत्र भी काफी प्राचीन है। इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आगम का मूल रूप वर्तमान मे भी सुरक्षित है। आगम-साहित्य में अनुयोग-व्यवस्था आगम-युग मे अग-साहित्य का नय के आधार से अध्ययन करने की परपरा रही है । प्रत्येक सूत्र एव पद को नय की अपेक्षा से लगाया जाता था । परन्तु दृष्टिवाद का लोप होने के बाद नय के स्थान मे अनुयोग की परपरा चालू की गई । अनुयोग का अर्थ है--सूत्र और अर्थ का उचित सम्बन्ध । ये चार प्रकार के है-१ चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग और ४ द्रव्यानुयोग । आचार्य आर्यव्रज तक अनुयोगो के प्रतिपादन की कोई व्यवस्था नहीं थी । प्रत्येक सूत्र के साथ चारो अनुयोगो का प्रतिपादन किया जाता था। इससे शिष्य एव गुरु दोनो को अध्ययन-अध्यापन करवाने में कठिनता पडती थी। इसलिए आचार्य आर्यरक्षित ने अनुयोग प्रतिपादन की पद्धित में परिवर्तन किया । आर्य रक्षित के चार प्रमुख शिष्य थे-१. दुर्बलिका पुष्य, २. फल्गुरक्षित, ३ विन्ध्य और ४ गोष्ठामाहिल । उनके शिष्य परिवार मे विन्ध्य प्रबल मेधावी था। उसने आचार्य से प्रार्थना की कि सहपाठ मे बहुत देर लगती है, अत ऐसी व्यवस्था करे कि मुझे पाठ शीघ्र मिल जाए । आचार्य ने उसके अध्ययन का भार दुर्बलिका पुष्य को सौपा। कुछ दिन तक अध्ययन चलता रहा । परन्तु अध्ययन कराने मे ही अधिक समय लग जाने के कारण दुर्बलिका पुष्य अपना स्वाध्याय व्यवस्थित रूप से चालू नहीं रख सका। इससे वह नवम पूर्व को भूलने लगा । अत उसने आर्य रक्षित से कहा कि यदि मै इसे वाचना दूंगा, तो मेरा नवम पूर्व विस्मृत हो जाएगा । अपने शिष्य की यह स्थिति देखकर आर्य रक्षित ने सोचा कि स्मृति मन्द हो रही है । अत प्रत्येक सूत्र मे चारो अनुयोगो को धारण करने वाले श्रमण अब अधिक लम्बे समय तक नही रहेगे। इसलिए आर्यरक्षित ने पूरे श्रुत-साहित्य को ही चार भागो मे विभक्त कर दिया । इससे आगमो की व्याख्या करने मे दुरूहता नही रही । चार अनुयोगो मे आगमो का विभाग निम्न प्रकार से किया गया
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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