________________
आगम साहित्य एक अनुचिन्तन
मिलता है "वायणतरे पुण, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति ।" इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि देवद्विगणी क्षमाश्रमण के पूर्व वल्लभी मे आचार्य नागार्जुनके सान्निध्य में एक आगम वाचना हुई थी। इस समय आचार्य आर्य रक्षित ने अनुयोगद्वार की रचना की।
वल्लभी-परिषद्
मथुरा आगम परिपद् के करीव डेढ सौ वर्ष वाद वल्लभी मे आगमो को व्यवस्थित रूप देने के लिए तृतीय वार श्रमण-सघ का मिलन हुआ। वीर स०६८० और वि० स० ५१० मे आचार्य देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व मे आगमो के पाठो को व्यवस्थित किया गया और स्मृति में अत्यधिक कमी आ जाने के कारण आगमो को लिपिवद्ध भी किया गया। आगम-साहित्य मे पुनरुक्ति अधिक स्थानो पर दिखाई देती है । साधक को सावधान करने एव उसके अन्तर मन मे वीतराग वाणी को जमाने के लिए एक ही वात कई वार दुहराई गई। अत जव लिखने का प्रसग आया तो उनके सामने कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित हुई। क्योकि एक बात अनेक आगमो मे अनेक स्थनो पर होने के कारण बहुत लिखना पडता था। अत आगमो को लिपिवद्ध करने समय पुनरुक्ति को कम करने के लिए हर आगम मे इम वात को न लिखकर एक-दूसरे आगम का उल्लेख कर दिया गया। जैसे कोई बात रायपसेणीय मूत्र मे लिखी जा चुकी है, तो उस आगम मे यह सकेत कर दिया गया-"जहा रायपमेणीय" । इसमे अनेक अगो में वर्णित विषय, जो पहले उपागो मे लिखे जा चुके थे, उनके लिए भी पश्चात् लिए जाने वाले अगो मे उपागो का सकेत किया गया।
यह आगमो की अन्तिम वाचना थी। इसके पश्चात् इतने विशाल स्प मे कोई सर्वमान्य आगम-परिषद् नही हुई। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के पश्चात् कोई पूर्वधर भी नहीं रहा। इस समय आचार्य देवद्धिगणि ने नन्दी सूत्र की रचना की। इसमे आगम-साहित्य का परिचय भी दिया गया है। और उसी ममय सकलित एव व्यवस्थित किए गए समवायाग सूत्र में भी आगमो का परिचय जोडा गया-ऐमा प्रतीत होता है। आगम-विच्छेद का इतिहास
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके द्वितीय पट्टधर आचार्य जम्बू अन्तिम सर्वज्ञ थे । उनके निर्वाण के बाद भरत क्षेत्र मे कोई सर्वज्ञ नही हुआ । उनके पश्चात् 'चतुर्दश पूर्वधरो की परपरा चलती रही। आचार्य भद्रवाहु अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर थे। उनका स्वर्गवास वीर-निर्वाण स० १७० मे हुआ। अर्थ की दृष्टि से इसी समय चार पूर्वो का विच्छेद हो गया। दिगवर परपरा के अनुसार आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर निर्वाण के १६२ वर्ष वाद हुआ ।
आचार्य स्थूलभद्र मूल सूत्रपाठ से चतुर्दश पूर्वघर थे । परन्तु उनके स्वर्गवास (बीर० स० २१६) के बाद शब्द-मूल रूप से भी चार पूर्वो का लोप हो गया । आचार्य आर्यरक्षित तक दश पूर्वो की परपरा
१५