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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ
उन्हें आगम-परिपद में सम्मलित होने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने अपनी सावना का कारण बता कर आने में असमर्थता प्रकट की। इस पर श्रमण-सब ने पुन उनके पास कुछ श्रमणो को यह मन्देश . टेकर भेजा कि सायना महान् है या सब सेवा । इस सन्देश ने महत्वपूर्ण कार्य किया और सघ सेवा
की महानता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने सघ सेवा करना स्वीकार किया। श्रमण-मघ ने श्रुत-परपरा के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए पाँच-सौ श्रमणो को चांदह पूर्व का अध्ययन करने के लिए प्राचार्य भद्रवाहु की सेवा में रखा और एक हजार श्रमण उनकी सेवा-शुश्रूपा के लिए उनके साथ रहे। परन्नु स्यूलभद्र के अतिरिक्त अन्च श्रमण जान-मावना को मतत चालू नही रख सके, वे बीच में ही अध्ययन छोडकर चले आए। स्यूलभद्र अपने अध्ययन मे शनवरत लगे रहे और उन्होंने का पूर्वो का अध्ययन किया। उस समय त्यूलभद्र की दो वहिने-जो साध्विएं थी, उनके दर्शनार्य पहुँची, तो उन्होन अपनी विद्या का, नान-साधना का चमत्कार दिखाने के लिए सिंह का रूप धारण कर लिया । जब आचार्य भद्रवाह को इस बात का सकेत मिला, तो उन्होंने उस अपात्र समझकर आगे अध्ययन कराना वन्द कर दिया। स्यूलभद्र के द्वारा अपनी गलती की क्षमायाचना करने और अत्यधिक आग्रह करने के वाद आचार्य भद्रबाहु ने उन्हे गेप चार पूर्वो की मूल रूप से वाचना दी, परन्नु उनका बर्य रूप से अध्ययन नहीं करवाया । इस तरह स्थलभद्र मूल मूत्र की अपेक्षा से चौदह पूर्व के अन्तिम ज्ञाता थे। उनके वाद दा पूर्व का ज्ञान ही शेप रहा । वज्र स्वामी अन्तिम दश पूर्वधर ये । व स्वामी के गिप्य आर्यरक्षित नव पूर्व और दसवें पूर्व के २४ यविक के ज्ञाता थे। उनके शिष्य डुबलिका पुप्यमित्र ने नव पूर्व का अध्ययन किया परन्तु अनभ्यास के कारण वह नववे पूर्व को भूल गया। विस्मृति का यह क्रम आगे बढ़ता रहा और समय के अनुसार जान-साधना एव स्मृति मे कमी आती रही।
मथुरा-परिषद्
पाटलिपुत्र मे धृत-परपरा के प्रवाह को प्रवमान रखने का प्रयत्न किया गया । परन्तु, आगमसाहित्य के छिन्न-भिन्न होने के प्रमग आते रहे। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीसरी गताब्दी के अन्न में (वीर० ८ २९१) आर्य मुहम्ती मूरि के समय में मप्रति राजा के राज्य मे फिर बारह वर्ष का भयकर दुप्काल पड़ा । इमके पन्चान् आर्य थी स्कदिल और वन स्वामी के समय में पुन भयकर दुप्फाल पड़ा। इस दुप्काल का वर्णन नन्दी स्त्र की चूणि मे किया गया है । उस समय (वी० म० ८२७ और ८४० के मध्य में) आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में श्रमण-मघ का सम्मेलन हुआ। आगमो को व्यवस्थित करने का यह दूसग प्रयत्न या। इस प्रयत्न को मायुरी वाचना या मयुरा परिपद् कहते है। इसी समय आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व मे वल्लभी में भी कुछ यमणो का मम्मेगन हुआ और उन्होंने अपनी स्मृति में रहे हुए आगमो को व्यवस्थित रूप दिया। इसे नागार्जुनीय वाचना कहते हैं । आगम-साहित्य के व्याख्याकारो ने जब आगमो पर टीकाएँ लिखी, तब उन्हें कहीं-कही पाठभेद दिखाई दिया, तो उन्होंने उसका पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया है। उस जगह ऐसा पाठ
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