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आगम साहित्य एक अनुचिन्तन
आगम एव उसके व्याख्या-साहित्य का अध्ययन करने पर यह स्पष्टतया ज्ञात होता है, जबकि श्वेताबर और दिगम्बर परपरा मे साहित्य को लेकर मतभेद तीव्र होने लगा, तब अग वाह्य आगमसाहित्य को भी गणधर-कृत मानने की प्रवृत्ति चली और आगे चलकर वह बढती ही गई, यहां तक कि आचार्यों द्वारा रचित पुराण-साहित्य भी गणधरो की रचना कहाँ जाने लगी।
इतनी लम्बी चर्चा का निष्कर्ष यह है कि अग बाह्य को गणधर कृत मानने की परपरा अर्वाचीन है और वह परिस्थिति वश चालू हुई। परन्तु, यथार्थ मे अग-साहित्य ही तीर्थकर भगवान की वाणी है और गणधर उसके सूत्रकार है । अग वाह्य आगम-साहित्य के रचियता गणधर नही, स्थविर है और अनेक आगमो के साथ उन स्थविरो का प्रणेता के रूप मे नाम जुडा हुआ है, जिसका हम ऊपर उल्लेख कर आए है। आगम-परिपद्
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् दूसरी शताब्दी (वीर स० १६०) मे नन्दराज के समय मे पाटलिपुत्र-पटना मे द्वादश वर्ष का भीपण दुप्काल पडा । दुर्भिक्ष के कारण श्रमण-श्रमणी का निर्वाह होना कठिन हो गया। इसलिए वे वहाँ से अन्यत्र विहार कर गए और कुछ विशिष्ट श्रमणो ने अनशन द्रत करके समाधि-मरण को प्राप्त किया। ऐसी स्थिति मे श्रुत-साहित्य के समाप्त होने काभय होने लगा ।। क्योकि उस समय लिखने की परपरा थी नही। समस्त श्रुत-साहित्य कण्ठस्थ करने करवाने की परपरा थी। अत दुष्काल के समाप्त होने पर श्रमण-सघ पाटलिपुत्र मे एकत्रित हुआ और अपनी-अपनी स्मृति के अनुसार एकादश अगो को व्यवस्थित किया।' इस सम्मेलन को पाटलिपुत्र परिपद् कह सकते है। इसमे श्रमण-सघ ने एकादश अगो के पाठो को सर्व सम्मति से स्वीकार किया और उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की । परन्तु उक्त परिपद् में द्वादशम अग दृष्टिवाद का कोई ज्ञाता नही था। उस समय केवल आचार्य भद्रबाहु ही सम्पूर्ण द्वादशागी-चौदह पूर्व के ज्ञाता थे और वे उस समय नेपाल की गिरि-कन्दराओ मे महाप्राण नामक ध्यान की साधना मे सलग्न थे।
जाओ अ तम्मि समए दुक्कालो दोय-दसय वरिसाणि । सन्वो साहु-समूहो गओ तो जलहितोरेसु ॥ तदुवरमे सो पुणरवि पाडलिपुत्ते समागओ विहिया । सघेण सुयविसया चिता कि कस्स अत्येति ॥ ज जस्स आसि पासे उद्देस्स ज्झयणमाइ सर्घाडउ ॥ त सध्वं एक्कारय अगाई तहेब ठवियाइ ।
-आचार्य हरिभद्र कृत उपदेश-पद