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गुन्द्रव श्री स्ल मुनि स्मृति-प्रन्य
आदि एकादय अंगों का अध्ययन किया।" इससे गया परिनान होता है कि अग-बाह्य पत्रों में सम्म पहले आवश्यक मूत्र या उसके मामायिक अध्ययन को गणवर कृन मानन की परपग त्राल हुई।
और इससे इनना निश्चित होता है कि अग बाह्य आवश्यक सूत्र को गणधर कुन मानने की परपग कम में कम मावश्यक नियुक्ति नितनी प्राचीन है।
परन्तु यह परंपग केवल आवश्यक सूत्र नक ही मीमित नहीं रही, उसका क्षेत्र बढता गया और धीर-धीरे नमस्त अंग-बाह्य आगमी को गणधर कृत माना जाने लगा । दिगम्बर ग्रन्यों में भी इसका प्रमाण मिलना है। दिगम्बर आचार्य जिनमेन (वि०म०२४०) अपने हरित्रण पुराण में लिखने है कि भगवान महावीर ने सर्व-प्रथम बारह अगों का अर्थ रूप से उपदंग दिया, उसके बाद गौतम गणवर ने उपाग महित द्वादशागों की रचना की।
नन्दी मूत्र में वादगागी को जिन-प्रणीश कहा है। परन्तु वृणिकार ने अग बाह्य आगमी को भी उसके साथ जोडने का उल्लेख किया है। इससे यह सप्ट होता है कि चूणिकार के समय में अग वाह्य आगमों को गणवर कृत मानने की परंपरा प्रचलित हो गई थी। यही कारण है कि नन्दी मूत्र में जहाँ अग और अंग-बाह्य आगमी की गणना की गई है, वहाँ भी चूर्णिकार इस बात का उल्लेख करते है कि अग और अंग-बाह्य उभय आगम अरिहंत भगवान् की वाणी है। अग-बाह्य आगम भी वीतराग वाणी है, इस मान्यता का यह स्रोत यही अवद्ध नहीं हुआ। इसका प्रवाह और आगे प्रवमान होता रहा और परिणाम स्वरुप पुराण साहित्य भी गणवर कृत माना जाने लगा। पुराणकारों ने अपने पुराणों का प्रामाणिक्ना को सिद्ध करने के लिए उनकी प्रस्तावना में यह उल्लेख करना शुरू कर दिया कि मूल रूप से पुराण गगवर कृत हैं, हम यह वप्नु परपरा से प्राप्त हुई है, जिसके आधार से पुराणो की रचना की गई है। इस तरह अग और अग-वार को ही नहीं, प्रत्युत पुराण साहित्य पर भी गणघर-कर्तृत्व की मोहर लगाई जाने लगी।
अब जम्न यह होता है कि अग-बाह्य माहित्य को गणधर कृत मानन का क्या कारण रहा? इसका स्पष्ट उत्तर यह हो सकता है कि गणधर ऋद्धि-सम्पन्न माने जाते थे और उन्होंने भगवान् के प्रवचन को माक्षात् रूप से ग्रहण किया था। अत उनके नाम को जोड़ टेन से ग्रन्य की प्रामाणिकता अधिक बढ़ जाती है। इसलिए आचार्यों ने आगम में समविष्ट हो सकने वाले सम्पूर्ण साहित्य को गणघर के नाम से प्रचारित कर दिया।
हरिवंश पुराण, २, ६२, १०६, १११. • नन्दी सूत्र, चूणि पृष्ठ ३८ ३ वही पृष्ठ ४० * पाचरित, १, ४१-४२, महापुराण (मादिपुराण) १, २६, १, १९८-२०१