________________
आगम-माहित्य एक अनुचिन्तन
परन्तु परपरा से जो यह मान्यता चली आ रही है कि तीर्थकर मदा-सर्वदा अर्धमागधी या प्राकृत भाषा मे उपदेश देते है, इससे यह वात सिद्ध होती है कि पूर्व-साहित्य की भाषा सस्कृत नही, प्राकृत ही होनी चाहिए । यदि पूर्व-साहित्य को भगवान् महावीर के पहले से चली आ रही ज्ञान-धारा मानें, नव भी यह तो निश्चित है कि वह जान-धारा उनके पूर्ववर्ती तीर्थकरो द्वारा ही उपदिष्ट थी । और सब तीर्थकरो का उपदेश अर्धमागधी भापा मे होता था । ऐसी स्थिति में पूर्वो की भापा सस्कृत मानना कुछ अट-पटा-सा लगता है । यह ऐतिहासिक विषय के अन्वेपको की खोज का विषय है। आगमो का प्रामाण्य-अप्रामाण्य
केवल जानी, अवधि ज्ञानी, मन पर्यव ज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर और दग-पूर्वधर के द्वारा उपदिष्ट एव रचित साहित्य को आगम कहते है । आगम-साहित्य मे द्वादशागी या गणिपिटक का प्रमुख स्थान है। इसके उपदेष्टा तीर्थकर भगवान् होते है । वर्तमान काल में रचित द्वादमागी के उपदेप्टा श्रमण भगवान महावीर है और उसके सूत्रकार गणधर सुधर्मा है । तीर्थकर सदा अर्थ रूप से उपदेश देते हैं और गणघर उस उपदेश को सूत्रस्प मे गूथते है । द्वादशागी के अतिरिक्त उपाग आगमो के रचियता स्थविर हे । वह चौदह पूर्वधर-श्रुत-केवलियो या विशिष्ट ज्ञानी श्रमणो की वाणी है, मर्वज्ञ की नही । इसलिए द्वादशागी स्वत प्रमाण है । उसके अतिरिक्त शेप आगम-साहित्य परत प्रमाण है । जो आगम द्वादशागी के अनुरूप है, अविरुद्ध है, वे प्रामाणिक है, अन्य अप्रामाणिक है। प्रागम-विभाग
_श्रुत-साहित्य प्रणेता की अपेक्षा मे दो भागो मे विभक्त होता है- अग प्रविष्ट और २ अनगप्रविष्ट, अग वाह्य । श्रमण भगवान महावीर के ग्यारह गणधगे ने उनके अर्थ रूप उपदेश को जो सूत्र रूप मे गूथा या भगवान् के उपदेश को जो माहित्य का रूप दिया, वह अग-प्रविष्ट आगम-माहित्य कहलाता है । स्थविरो ने जिस साहित्य की रचना की, वह अनग-प्रविष्ट या अग-बाह्य कहलाता है। द्वादशागी के अतिरिक्त जो आगम-साहित्य उपलब्ध है, वह सब अनग-प्रविष्ट है ।
तीर्थकर केवल ज्ञान को प्राप्त करने के बाद गणधरो को स्थापित करके तीर्थ का प्रवर्तन करते है । जैन-परपरा में यह मान्यता रही है कि गणधरो के प्रवृजित होने पर भगवान उन्हे विपदी-उत्पाद व्यय और ध्रौव्य का उपदेश देते है । उम उपदेश के आधार पर जिस साहित्य का, जिन आगमो का निर्माण किया गया , वह अग-प्रविप्ट साहित्य है। अग-प्रविष्ट आगम-साहित्य का स्वरूप समस्त तीर्थकरो के शासन मे निश्चित होता है । सभी तीर्थकर द्वादशागी का उपदेश देते है । परन्तु अनग प्रविष्ट आगमो की संख्या निश्चित नही होती । उसमे कम ज्यादा भी होते रहते है। वर्तमान में उपलब्ध एकादश अग
' गणहर-थेरकय वा आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुव-चल-विसेसओ वा अगाणगेसु नाणत्त ।।
वि० भा०, ५५०