SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम-साहित्य एक अनुचिन्तन रचना-क्रम दृष्टिवाद के पॉच भागो मे चतुर्थ भाग पूर्वगत मे चौदह पूर्व समाविष्ट है । इनका परिमाण बहुत विशाल है । कभी एक भी पूर्व लिखा नही गया है। फिर भी उसकी विराटता को बताने के लिए आचार्यों ने परिकल्पना की है कि यदि प्रथम पूर्व को लिपि बद्ध किया जाए, तो उसमे एक हाथी के परिमाण की स्याही लगेगी। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि पूर्व-साहित्य कितना विशाल था, शब्द रूप से उसका पारायण कर सकना कठिन लगता है । सम्भवत भाव रूप से ही उसे हृदयगम किया जाता रहा होगा। ये श्रुत या शब्द ज्ञान के समस्त विषयो के अक्षय कोप होते है। कोई भी विषय ऐसा नहीं रह जाता, जिसकी चर्चा पूर्व-साहित्य मे न की गई हो । वस्तुत पूर्व-साहित्य आगम या श्रुत-साहित्य की अमूल्य निधि है। यह एक प्रश्न है कि पूर्व-साहित्य का रचना काल कब का माना जाए? इस सम्बन्ध में दो विचारधाराएं है-१ श्रमण भगवान् महावीर के पूर्व से ज्ञान-राशि की यह महानिधि चली आ रही थी, इसलिए उत्तरवर्ती श्रुत-साहित्य रचना के समय इसे पूर्व सज्ञा दी गई और दृष्टिवाद मे इन सबका समावेश कर लिया गया, और २ श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशागो से पूर्व चौदह आगमो का उपदेश दिया, अत इन्हे पूर्व कहा गया।' वर्तमान युग के पाश्चात्य एव पौर्वात्य विद्वान प्रथम विचारधारा के पक्ष मे है । क्योकि यह तो निर्विवाद रूप से मान्य है कि भगवान् महावीर के पूर्व भी श्रुत-साहित्य था और भगवान महावीर के समय मे भगवान् पार्श्वनाथ परम्परा के श्रमण-श्रमणी भी विद्यमान थे। आगमो के पृष्ठो पर भी यह अकित मिलता है कि पार्श्वनाथ परम्परा के अनेक श्रमणो ने भगवान् महावीर के शासन को स्वीकार किया । भगवान् महावीर के शासन मे प्रविष्ट होने के पूर्व अनेक श्रमणो को भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा उपदिष्ट द्वादशागी का परिज्ञान रहा होगा। अत ऐसा लगता है कि पूर्व परम्परा से चले आ रहे ज्ञान लोत को ही पूर्वो की सज्ञा देकर द्वादशागी मे समाविष्ट कर लिया हो । पूर्व-साहित्य इतना विशद है कि उसमे समस्त श्रुत-साहित्य समा जाता है, फिर अन्य आगमो की रचना क्यो की ? यह एक प्रश्न है। इसके समाधान मे आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य मे कहा है कि भूतवाद-दृष्टिवाद अग मे समस्त वाड्मय समा जाता है, फिर भी कठिनता से समझने वाले अल्पज्ञ पुरुप एव स्त्रियो के लिए अन्य एकादश अगो की रचना की। श्री मलधारी हेमचन्द्र सूरि ने विशेपावश्यक भाप्य पर की गई टीका मे इस बात को और स्पष्ट कर दिया है। ' सर्व श्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वाऽदीनि चतुर्दश :-स्थानाग सूत्र वृत्ति, १०,१. २ जइ विय भूयावाए सव्वस्स वओमयस्य ओयारो। निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे इत्यीय ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५५०.
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy