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________________ आगम साहित्य एक अनुचिन्तन बद्ध, ७ एक गुण, ८ द्विगुण, ६ त्रिगुण, १० केतुभूत, ११ प्रतिग्रह, १२ ससार-प्रतिग्रह, १३. नन्दावर्त, और १४ सिद्धबद्ध । मनुष्य श्रेणी परिकर्म के भी उक्त चौदह भेद है । शेष स्पृष्ट-श्रेणी आदि पांच परिकर्म के ग्यारह-ग्यारह भेद है । स्व समय की अपेक्षा से परिकर्म के छह भेद है, सातवां परिकर्म आजीविक मत के अनुसार है । प्रथम के छह परिकर्म स्व-सामयिक होने से उनमे चार नय की अपेक्षा से विचार किया गया है और सातवे परिकर्म मे तीन नय की अपेक्षा से । परन्तु त्रि-राशिक की दृष्टि से सातो परिकर्मों मे तीन नय की अपेक्षा से विचार किया गया है। आगमो मे प्रयुक्त प्रत्येक वस्तु का विचार नय की अपेक्षा से किया जाता है । ऐसा कोई शब्द या अर्थ नही है कि जिसका विचार करते समय नय का प्रयोग न किया जाए। विशेप करके द्वादशम अग दृष्टिवाद के सम्बन्ध मे तो नय से विचार करने की पद्धति रही है । परन्तु इसका विच्छेद होने के बाद मध्यकाल मे शिष्यो की बुद्धि मे मन्दता आ जाने के कारण नय विचार की पद्धति को बन्द कर दिया। परन्तु यदि कोई श्रमण-श्रमणी विचार करने के योग्य है, तो उनके लिए छूट भी है । प्राचीन काल मे कालिक श्रुत और दृष्टिवाद के प्रत्येक पद पर नय पद्धति से विचार करने की परपरा रही है। और जब तक समग्र श्रुत-साहित्य को द्रव्यानुयोग आदि चार अनुयोगो मे विभक्त नहीं कर दिया, तब तक नयविचारणा करने की परपरा रही है । आचार्य आर्यवज्र के बाद आर्य रक्षित ने समग्र श्रुत-साहित्य को द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरण-करणानुयोग और धर्मकथानुयोग, इन चार अनुयोगो मे बाँट दिया। इसके बाद नय विचारणा के लिए यह परपरा चल पड़ी कि यदि श्रोता और वक्ता योग्य हो, तो अपनी योग्यता के अनुसार नय विचारणा करे और यदि दोनो मे विशिष्ट योग्यता न हो, तो सूत्र और उसके अर्थ से काम चलाए, परन्तु नय-विचारणा न करे।' २ सूत्र अठयासी है-१ ऋजुग, २ परिणता-परिणत, ३ बहुभागिक, ४ विप्रत्ययिक, ५ अनन्तर, ६ परपरा, ७ समान, ८ सयूथ, ६ सभिन्न, १० यथात्याग ११ सौवस्तिक, १२ नद्यावर्त, १३ बहुल, १४ स्पृष्टा-स्पृष्ट, १५ व्यावर्त, १६ एवभूत, १७ द्विकावर्त, १८ वर्तमानोत्पाद, १६ समभिरूढ २० सर्वतोभद्र, २१ प्रणामा और २२ द्वि-प्रतिग्रह । उक्त २२ सूत्रो का स्व-सिद्धान्त के अनुसार स्वतत्र भाव से विचार किया जाता है, इनका परतन्त्र भाव से अर्थात् गोशालक के मत के अनुरूप विचार किया जाता है, इनका त्रि-नय की अपेक्षा से विचार करने वाले त्रि-राशि की दृष्टि से विचार किया जाता है और इनका स्व-समय की अपेक्षा से चार नय की दृष्टि से विचार किया जाता है । इस प्रकार प्रत्येक वाईस सूत्रो का चार प्रकार से विचार होता है, अत कुल सूत्र संख्या २२४४८८ है । ३ पूर्वगत मे चौवह पूर्व है-१ उत्पाद पूर्व, २ अग्रायणीय पूर्व, ३ वीर्य पूर्व, ४ अस्ति-नास्तिप्रवाद पूर्व, ५ जान-प्रवाद पूर्व, ६ सत्य-प्रवाद पूर्व, ७ आत्म-प्रवाद पूर्व, ८ कर्म-प्रवाद पूर्व, ६. प्रत्या ख्यान-प्रवाद पूर्व, १० विद्यानुवाद पूर्व, ११ अवन्ध्य-प्रवाद पूर्व, १२ प्राणायु-प्रवाद पूर्व, १३. क्रियाविशाल- प्रवाद पूर्व, १४ लोक-बिन्दुसार पूर्व । प्रत्येक पूर्व की वस्तु और चूलिका निम्न प्रकार से है ' आवश्यक नियुक्ति गाथा ७६०, विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १२७५ ।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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