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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ जैन-साहित्य दो विभागो मे विभक्त है-१ आगम-साहित्य और २ आगमेतर-साहित्य । तीर्थकरो द्वारा उपदिष्ट, गणधरो एव पूर्वधर स्थविरो द्वारा रचित साहित्य को आगम और आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थो को आगेमतर साहित्य की सज्ञा दी गई है। तीर्थकर सदा अर्थ रूप से उपदेश देते हैं । उनका प्रवचन सूत्र रूप मे नही होता । गणधर उस अर्थ रूप प्रवचन को सूत्र रूप मे गूथते है । इस अपेक्षा से आगम के दो भेद होते है-१ अत्यागमेअर्थ-आगम और २ सुत्तागमे सूत्र-आगम । तीर्थकर भगवान द्वारा उपदिष्ट वाणी को अर्थागम और उस प्रवचन के आधार पर गणधरो द्वारा रचित आगमो को सूत्रागम कहते है । ये आगम आचार्यों की अमूल्य एव अक्षय ज्ञान निधि बन गए है । इसलिए उन्हे गणि-पिटक के नाम से भी सबोधित किया गया है। इनकी सख्या बारह है । इसलिए उसका द्वादशागी नाम भी है। जैन-परपरा की यह धारणा रही है कि अनादि काल से होने वाले तीर्थकर अपने शासन काल में द्वादशागी का उपदेश देते है, अनागत काल मे होने वाले तीर्थकर इसी द्वादशागी का उपदेश देगे और वर्तमान मे महाविदेह क्षेत्र मे विद्यमान तीर्थकर इसका उपदेश दे रहे हैं । इस तरह प्रवाह की दृष्टि से द्वादशागी अनादि-अनन्त है । उसका प्रवाह न कभी विच्छिन्न हुआ है और न होगा। परन्तु व्यक्ति की अपेक्षा से विचार करते है, तो इसका दूसरा पक्ष भी है । वह यह है कि प्रत्येक काल मे होने वाले तीर्थकर इसका उपदेश देते है । अत उनके शासनकाल में विद्यमान द्वादशागी उनके द्वारा उपदिष्ट होती है। वर्तमान मे सप्राप्त द्वादशागी के उपदेप्टा है-श्रमण भगवान् महावीर । इस तरह द्वादशागी प्रवाह रूप से अनादि-अनन्त होने पर भी अकृतक नही, कृतक है, अपौरपेय नही, पौरुपेय है। क्योकि वह वाणी है, शब्दो एव अक्षरो का समूह मात्र है। वाणी, शब्द या अक्षरो का निर्माता कोई व्यक्ति ही होता है, ईश्वर नहीं। क्योकि ईश्वर शरीर रहित है और वाणी शरीर का धर्म है । अत द्वादशागी एव अन्य कोई भी शास्त्र ईश्वर-कृत नही है। द्वादगागी यह है-१ आचाराग २ सूत्रकृताग, ३ स्थानाग, ४ समवायाग, ५ भगवती, ६. ज्ञाता-धर्मकथाग, ७ उपासक-दशाग ८ अन्तकृद्दशाग, ६ अनुत्तरोपपातिक, १० प्रश्न-व्याकरण, ११ विपाक और १२ दृष्टिवाद । वर्तमान मे दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है, शेप एकादश-अग उपलब्ध हैं। दृष्टिवाद समवायाग सूत्र मे दृष्टिवाद के परिचय मे लिखा है कि दृष्टिवाद में समस्त भावो की परपणा की गई है। वह मुख्य रूप से पाँच भागो मे विभक्त है-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ पूर्वगत, ४ अनुयोग और ५ चूलिका। १ परिकर्म के सात विभाग हैं-१ सिद्ध श्रेणी, २ मनुष्य थेणी, ३ स्पृष्ट श्रेणी,४ अवगाहना थेणी, ५ उपसपदा श्रेणी, ६ विप्रजहत श्रेणी, और ७ च्युताच्युत श्रेणी । सिद्ध श्रेणी परिकर्म के चौदह विभाग है-१ मातृ का पद, २ एकाथिक पद, ३ पादोप्ठ पद, ४ आकाश पद, ५ केतुभूत, ६ राशि
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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