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श्रमण संस्कृति के समुज्ज्वल नक्षत्र श्री सोनाराम जैन सन्मति ज्ञानपीठ
गुरुदेव श्री रत्नचन्द्र जी महाराज पूर्ण सयमी तथा श्रमण-सस्कृति के समुज्ज्वल नक्षत्र के रूप मे भारत वसुन्धरा पर अवतरित हुए। सयम तथा वैराग्य की बोर जन्म से ही आपका आकर्षण था। यही कारण है कि केवल बारह वर्ष की आयु मे ही आपने पूज्यपाद श्री हजारीमल महाराज का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात् आपने अपने शरीर की निरपेक्षता का अपने जीवन की प्रयोगशाला द्वारा जो महान् तथा सुन्दर प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया, वह सदा के लिए स्मरणीय बन गया।
श्रद्धेय श्री रत्नचन्द्र जी महाराज न केवल एक उदारचेता महापुरुष थे अपितु वह इस प्रकार के युग-प्रवर्तक योगी थे, जिन्होने ससार में सुख और शान्ति को स्थिर रखने के लिए समता, सत्य, अहिंसा और विश्व बन्धुत्व की भावना को अत्यन्त आवश्यक बतलाया। पूज्य गुरुदेव जैन जगत् के ऐसे प्रकाश स्तम्भ थे, जिनके जीवन का लक्ष्य सत्य प्राप्ति और सम्पूर्ण आध्यात्मिक विकास था। वह सद्गुणो के भण्डार थे। उनकी तप साधना निस्सीम थी। उनकी सेवावृत्ति, सरलता, प्रशान्तमुद्रा और कठोर साधना सर्वथा अपूर्व थी। उन्होने अपने जीवन को कोटि-कोटि मनुष्यो के कल्याण के लिए अर्पित कर दिया था। समस्त प्राणियो के प्रति उनका समता तथा मैत्री का भाव था। उनका जीवन स्वच्छ, निर्मल, उज्जवल एव पवित्र था।
श्रद्धय गुरुदेव ने सैकडो और सहनो मीलो की पैदल यात्राएं की और सहस्रो लोगो को सन्मार्ग पर मारुढ किया।
जैन धर्म की मुनि-साधना वस्तुत कठोरतम साधना है। इस साधना मे मन, वाणी और काया के सभी दोषो का दमन करना पडता है। श्री गुरुदेव वास्तव मे पूर्ण इन्द्रिय-जयी कठोरतम साधक थे। इस अवसर पर मैं उनके सातिशय व्यक्तित्व के प्रति सविनय श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ।