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अमर-विभूति
कलावती जैन प्रभाकर
साधना के दो आधार है-विवेक और वैराग्य । वैराग्य तभी स्थिर होता है, जब साधक के पास विवेक का आलोक हो। विना विवेक और ज्ञान के माधना अधूरी रहती है। विवेक के साथ जब बैराग्य जीवन की भूमि पर उतरता है, तव माषक मे ज्योति प्रकट होती है।
श्रद्धय गुरुदेव श्री रलचन्द्र जी महाराज का जीवन विवेक और वैराग्य का सुन्दर मगम-स्थल था। सचमुच वे अपने युग के विवेक, और वैराग्य की एक अमर विभूति थे। उनके पावन और पवित्र जीवन से प्रेरणा पाकर हजारो व्यक्तियो ने अपने जीवन को निर्मल एवं स्वच्छ बनाया था । इस शुभ अवसर पर मैं उनके श्री चरणो में अपनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करती हूँ।
श्रद्धेय गुरुदेव रत्नचन्द्र जी म० श्रमण-मस्कृति के उन्नायको मे से एक थे। इस महापुरुष की भावना का उदय एक सम्प्रदाय एव परपरा विशेप मे हुआ। परन्तु वह साधना का स्रोत परपराओ के घेरे मे आवद्ध नही हुआ। परम्पराओं का व्यामोह उनकी साधना की ज्योति को धुधला नहीं बना सकता। उन्होंने उस युग में रूढ-परम्पराओ का परित्याग करके समाज को नयी चेतना, नयी ज्योति दी और मिथ्या बाग्रहो के परिग्रह से मुक्त होने का उपदेश दिया। इस महापुरुप के जीवन की यह विशेपता थी, कि उस साम्प्रदायिक युग में भी अन्य सम्प्रदाय के मुनियो के साथ मिलने जुलने विचार विमर्श करने एव अध्ययन करने हेतु दूर-दूर के प्रान्तो से उनके पास आते थे और वे उन्हे उसी स्नेह एव वात्सल्य भाव से अध्ययन कराते जिस स्नेह से अपने गिप्यो को कराते थे।
अपरिग्रह की साधना अपने और पराए का भेद करना नही सिखाती । जहाँ अपने पराए को भेद बुद्धि है, वहाँ अपरिग्रह की ज्योति प्रज्वलित नहीं हो सकती। श्रद्धेय रत्नचन्द्र जी म० के जीवन मे भेद की विभीपिका के दर्शन नही होते । अस्तु अपिरग्रह मायना पथ के पथिक के चरणों में मेरा शत-गत अभिवन्दन और अभिनन्दन ।
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