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________________ शत-शत अभिनन्दन श्री कल्याणदासजी जन नगर प्रमुख, आगरा नगर महापालिका श्रमण-सस्कृति मे अहिसा, सत्य आदि के साथ अपरिग्रह का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । आगम साहित्य में साधु के लिए श्रमण, भिक्षु, मुनि, साधु आदि के साथ निर्ग्रन्थ शब्द का भी उल्लेख मिलता है । निर्गन्य का अर्थ है-प्रन्थि, गाठ से रहित । धन-वैभव, मकान-दुकान, खेत-खलिहान, कारखाने आदि बाह्य प्रन्थि है और राग-द्वेप, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मनोविकार आभ्यन्तर ग्रन्थिया है । मन, वचन और शरीर से बाह्य एव आभ्यन्तर थियो का परिग्रह का परित्याग करने वाला साधक ही निर्गन्य है, श्रमण है, साधु है। परिग्रह का अर्थ केवल धन-सम्पति तक ही सीमित नही है । भगवान् महावीर के शब्दो मे परिग्रह-केवल पदार्थों के ग्रहण करने मे नही, प्रत्युत पदार्थों के प्रति रहे हुए ममत्व एव आसक्ति भाव मे है। वह आसक्ति भले ही धन-वैभव पर हो, परिवार पर हो, समाज पर हो, राष्ट्र पर हो, अपने शरीर पर हो, शिष्य-शिष्याओ पर हो । सम्प्रदाय एव साम्प्रदायिक रूढ-परम्पराओ पर हो, रूढ-धाराओ पर हो, अपने मन की परिकल्पित मान्यताओ पर हो या और किसी भी वस्तु पर हो, वह सब परिग्रह है । उसका परित्याग करने वाला, अपने और पराए के भेद से उठने वाला, साम्प्रदायिक परम्पराओ के व्यामोह का परित्याग करने वाला साधक ही अपरिग्रह के पथ पर प्रगति कर सकता है । गुरुदेव ने अपने जीवन में अपरिग्रह, अनेकान्त और अहिंसा की ऊंची साधना की थी। गुरुदेव महान थे श्री पद्मकुमार जी, सघ मंत्री गुरुदेव श्रद्धेय रलचन्द्र जी महाराज एक महापुरुष थे । उनके कठोर त्याग और उग्र तप से उस युग के समाज मे एक नयी चेतना, नयी जागृति और नयी स्फूति पैदा हुई । उनके मार्ग दर्शन से जनता को सुख, शान्ति, आनन्द और सन्तोप मिला। उनकी पुण्य शताब्दी के इस मगलमय अवसर पर मैं हार्दिक भाव से अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ। उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर हम भी उनके जैसे महान् बनने का प्रयत्न करे ।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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