________________
रत्न की ज्योति
पण्डित मुनि श्री फूलचन्दजी "श्रमण"
जैन-सस्कृति में समय-समय पर युग-पुरुष होते आए है। उन युग-पुरुषो मे श्रद्धेय रत्नचन्द्र जी महाराज भी एक युग-पुरुष थे। त्याग और वैराग्य की ऊंची साधना के साथ-साथ उन्होने ज्ञान और विवेक की भी बहुत ऊंची साधना की थी । अपने युग मे वे एक विख्यात एव विश्रुत श्रुतधर पण्डित थे। आपका नाम रत्न था, वस्तुत आप थे भी रत्न ही। प्रकृति के भण्डार मे रल एक अद्भुत पदार्थ है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। जो पदार्थों मे अथवा चेतन जीवो मे श्रेष्ठ होता है, उसे रत्न कहा जाता है।
रत्न की प्राप्ति साधारण पुण्य से नही, विशिष्ट पुण्योदय से होती है । आत्मा वह है, जो स्वय भी चमकता है, और अपने आश्रित को भी चमकाता है। पुण्य-शाली आत्मा ही रत्न प्राप्ति की अधिकारी हैं। पुण्य-हीन के भाग्य मे रत्ल की प्राप्ति कहाँ ?
आत्म-विशुद्धि के अमोघ-साधन-दर्शन-ज्ञान और चरित्र को भी रत्न कहते हैं । रत्न-त्रय की आराधना करने वाला व्यक्ति भी रत्न बन जाता है। श्री रत्नचन्द्र जी महाराज ने रत्न-त्रय की आराधना की थी। अत वे सच्चे अर्थ मे ग्ल थे। आप अपने जीवन के अरुणोदय से लेकर, अपने जीवन की सन्ध्या तक रन ही बने रहे । अपनी ज्योति का प्रकाश बिखेरते रहे। उस अमर रत्न-ज्योति के प्रति मैं अपनी श्रद्धा
जलि समर्पित करता हूँ, जो रल रूप मे जन्मा और रत्नगुरु के रूप मे । इस ससार मे रहा तथा अन्त मे भी जो रलरूप मे ही ससार से विदा होकर भी भक्तजनो के लिए रत्न सिद्ध हुआ है।