________________
आयारवसा
८६
उसी प्रकार हमारे आचार्य और उपाध्याय भी वर्षाकाल का एक मास और बीस रातें व्यतीत होने पर वर्षावास का निश्चय करते हैं ।
सूत्र ७
जहा णं अम्हं आयरिया उवज्झाया यासाणं सवीसइराए मासे विक्कते वासावासं पज्जोसविति ।
तहा णं अम्हे वि वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेमो । अंतरा वि य से कप्पड़,
नो से कप्पइ तं रर्याण उवाइणावित्तए 15/01
जिस प्रकार हमारे आचार्य और उपाध्याय वर्षाकाल का एक मास और बीस रातें व्यतीत होने पर वर्षावास का निश्चय करते हैं ।
उसी प्रकार हम भी वर्षाकाल का एक मास और बीस रातें व्यतीत होने पर वर्षावास का निश्चय करते हैं ।
विशेष कारण उपस्थित होने पर पचासवें दिन से पहले भी वर्षावास का निश्चय करना कल्पता है, किन्तु पचासवीं रात्रि का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है ।
वर्षावग्रहमानरूपा द्वितीया समाचारी
सूत्र ८
वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा, निगगंयोग वा सव्वओ समंता सकोर्स जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ताणं चिट्ठिउं अहालंदमवि उगाहे | ८/८ दूसरी वर्षावग्रह-क्षेत्र समाचारी
वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारों दिशा तथा विदिशाभ मैं एक कोश सहित एक योजन क्षेत्र का अवग्रह (स्थान) ग्रहण करके उस अवग्रह में रहना कल्पता है । उस अवग्रह से बाहर " यथालन्दकाल " ठहरना भी नहीं कल्पता है ।
विशेषार्थ - कल्पसूत्र की प्राचीन व्याख्या के अनुसार इस सूत्र में "उग्गहे " शब्द का अन्वय और " न वहि" का अध्याहार करने पर इस सूत्र का मूल पाठ इस प्रकार होगा ।
"वासावासं पज्जो सवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा सव्वभ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ताणं चिट्ठिउं उग्गहे, न बहि अहालंदर्भावि ।"