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परिशिष्ट (२)
पृष्ठ लाइन जे जाणई (इ) अरिहंते दन्वगुणपज्जवेहिं य । सो जाणई (इ) नियअप्पा मोहो खल जाईय ( जाइ ) तस्स लयं ॥ [प्रवचनसार १-८० पृ.१०१-कुन्दकुन्दाचार्य रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला १९३५] ६३५-२२ जेनो काळ ते किंकर थई रह्यो मृगतृष्णाजल त्रैलोक ( लोक ) ॥ जीव्यु धन्य तेहर्नु । दासी आशा पिशाची थई रही कामक्रोध ते केदी लोक ॥ जीव्युं० । (दीसे) खातां पीतां बोलतां नित्ये छे निरंजन निराकार || जीव्युं० । जाणे संत सलुणा ( सलोणा ) तेहने जेने होय छेल्लो (लो) अवतार ॥ जीव्यु । जगपावनकर ते अवतर्या अन्य मातउदरनो भार ॥ जीव्युं०। तेने चौद लोकमां विचरतां अंतराय कोईए ( कोये ) नव थाय ॥ जीव्युं० । रिद्धि (घि ) सिद्धि ते (धियो ) दासियो थई रही ब्रह्मानंद हृदे न समाय ॥ जीव्यु० ॥ [ मनहरपद पद १५-२९, ३१, ३६, ३७, ३८, ३९, पृ. १५-मनोहरदासकृत;
. सस्तुं साहित्यवर्धक कार्यालय, बम्बई सं. १९६९] ७४९-९ जे ( जो ) पुमान परधन हरै सो अपराधि ( धी) अज्ञ । जो अपनो (नौ) धन विवहरै ( ब्योहरै ) सो धनपति धर्मज्ञ ॥
[समयसारनाटक मोक्षद्वार १८, पृ. २८६] ७८६-१६ जेम निर्मळता रे रत्न स्फटिकतणी तेमज जीवस्वभाव रे । ते जिनवीरे रे धर्म प्रकाशियो प्रबळ कषाय अभाव रे॥
[नयरहस्य श्रीसीमंधरजिनस्तवन २-१७ पृ. २१४–यशोविजय ] ४४१-१९ जैसे कंचुकत्यागसें बिनसत नहीं भुजंग। देहत्यागसें जीव पुनि तैसें रहत अभंग ॥ [स्वरोदयज्ञान ३८६ पृ.९२-चिदानन्दजी] १२८-२५ जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति (त) मांही (हि ) तृषावंत मृषाजल कारण (न) अटतु है। तैसें भववासी मायाहीसों ( सौं) हित मानि मानि ठानि ठानि भ्रम भूमि (श्रम) नाटक नटतु है । आगेकों (आगैकौं) हुँ (धु) कत धाय (इ) पा (पी) छे बछरा चराय (चवाइ) जैसे दृग् (नैन ) हीन नर जेवरि व ( ब ) टतु है। तैसैं मूढ़ चेतन सुकृत करतूति करै । शे (रो) वत ह (है) सत फल खोवत खटतु है।
[समयसारनाटक बंधद्वार २७, पृ. २४२] ३२८-१६ जैसो (सौ) निरभेदरूप निहचे (चै) अतीत दुतो (हुतौ) तैसो (सौ) निरभेद अब भेदकोन (भेद कौन) ग (क) हे (है) गो (गौ)।