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परिशिष्ट (२)
घट घट अंतर जिन बसे (से) घट घट अंतर जैन ।
पृष्ठ लाइन मत (ति)-मदिराके पानसे (सौं) मतवारा समजै ( समुझे ) न ॥
[समयसारनाटक ग्रंथसमाप्ति और अन्तिम प्रशस्ति ३१, पृ. ५३८.] ७७५-१३ चरमावर्त हो चरमकरण तथा भवपरिणति परिपाक रे । दोष टळे न द्र (द) ष्टि खुल्ले (ले) भली प्रापति प्रवचनवाक रे ॥१॥ परिचय पात (ति) कघातक साधुशुं अकुशल अपचय चेत रे । ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी परिशीलन नय हेत रे ॥२॥ मुगध (ग्ध ) सुगम करी सेवन लेखवे सेवन अगम अनूप रे। देजो कदाचित सेवक याचना आनंदघनरसरूप रे ॥३॥
७४०-२) [ आनंदघनचौबीसी संभवनाथ जिनस्तवन ३, ४, ६, पृ. १६, १७, १९] ७४२-९) चलई सो बंधे (धो)
[भगवती !] ७८३-६ चाहे चकोर ते चंदने मधुकर मालती भोगी रे । तेम (तिम ) भवि सहजगुणे होवे उत्तम निमित्तसंजोगी रे ॥
[आठ योगदृष्टिनी स्वाध्याय १-१३, पृ. ३३१] ७४२-७ चित्रसारी न्यारी परजंक न्यारो (रौ) सेज न्यारी चादर (रि) भी न्यारी इहाँ जू (झू) ठी मेरी थपना । अतीत अवस्था सैन निद्रा वही (निद्रावाहि ) कोउ पैन (पैन) विद्यमान पलक न यामें (मैं) अब छपना। श्वा (स्वा) स औ सुपन दोउ (ऊ) निद्राकी अलंग बुझे (बूझै) सूझै सब अंग लखी (खि) आतम दरपना । त्यागी भयो (यौ) चेतन अचेतनता भाव त्यागी (गि) भाले (लै) दृष्टि खोलिके (कै) संभाले (लै) रूप अपना ॥
[समयसारनाटक निर्जराद्वार १५, पृ. १७६-७] ६७७-५ भाष्य चूर्णि (चूर्णि भाष्य सूत्र नियुक्ति), वृत्ति परंपर अनुभव रे ।
[आनंदघनचौबीसी नमिनाथजिनस्तवन ८, पृ. १६१] ७४६-१२ ज(ज)णं ज(ज)णं दिसं ई(इ)च्छइ त(त)णं त(त)णं दिसं अपडिबद्धे। [ आचारांग !] १९८-२ जबहि तें(जबहीत) चेनत(चेतन) विभावसों(सौं) उलटि आपु समो(मै) पाई(इ) अपनो(नौ) सुभाव गहि लीनो(नौ) है । तबहिते (तबहीते) जो जो लेन जोग सो सो सब लीनो (नौ) जो जो त्यागजोग सो सो सब छांडी(डि) दीनो(नौ) है। लेवे (लैबे ) की ( कों) न रही ठो (ठौ ) र त्यागिवेको (कौं) नाहीं और बाकी कहा उबर्यो (यौ) जु कारज (ज) नवीनो ( नवीनौ ) है।