________________
८४४
श्रीमद् राजचन्द्र
कम्मदव्वेहिं सम्मं (मं) संजोगो जो होई जीवस्स । सो बंधना ( णा ) यव्वो तस्स वियोगो भव (वे) मोख्खो (क्खो ) ॥
[
करना फकीर ( री ) क्या दिलगीरी सदा मगन मन रहे (ह) नाजी ।
[ समयसारनाटक बंधद्वार १९, पृ. २३४ - ५ ] कोई ब्रह्मरसना भोगी कोई ब्रह्मरसना भोगी । जाणे कोई विरला जोगी कोई ब्रह्मरसना भोगी ॥
[ संभव है यह पद स्वयं राजचन्द्रजीने बनाया हो । ]
पृष्ठ लाइन
गुरु गणधर गुणधर अधिक प्रचुर परंपर और । व्रत तपधर तनु नगनध (त) र वंदौ वृष सिरमो ( मौ) र ॥
५०४- २
[ यह पद छोटमकृत कीरतनमाला में पृष्ठ ६२ पर दिया हुआ है ] २२७-२ कर्त्ता मटे तो छूटे कर्म ए छे महा भजननो मर्म ।
जो तुं जीव तो कर्त्ता हरी जो तुं शिव तो वस्तु खरी ।
[ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा - पं. जयचन्द्रकृत अनुवादका मंगलाचरण ३; जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय बम्बई १९०४ ] गुरुण छंदा वत्त (छंदाणुवत्ति )
[
६२३-१७
२६७-२६
तुं छो जीवने तुं छो नाथ एम कही अखे झटक्या हाथ । [ अखा ] किं बहुणा इह जह जह रागादोत्रा बहु विलयंति ( रागद्दोसा लहुं विलिज्जंति ) । तह तह वटीअवं ( पयट्टअव्वं ) एसा आणा जीणं ( जिणि ) दाणम् ॥ [ उपदेशरहस्य-यशोविजयजी ] ३२८-२८ कीचसो (सौ) कनक जाके (कै) नीच सो (सौ) नरेश ( स ) पद मा (ता ) ई गर (रु) वाई जाके (कै) गारसी । जहरसी जोग - जानि (ति) कहरसी कराम ( मा ) ति हहरसी हौंस (हौस ) पुदगल - छबी (बि) छारसी । जासो (सौ) जग-बिलास भालसो (सौ) भुवनवास कालसो (सौ) कुटुंबकाज लोकलाज लारसी । सीठो (सौ) सुजसु जाने वी (बी) ठसो ( सौ) बखत मा ऐसी जाकी रीति ताही बं ( वं ) दत बनारसी ॥
] ७९६ - ७
६७८-१४
२३३-३०
७५५-५२ ७९१-२० ] ५९१-११
+ इसीसे मिलता जुलता अखाका एक पद निम्न प्रकारसे है:- ' ब्रह्मरस ते पीओ रे, जे आप त्यागी होय । '
·
-सम्पादक