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परिशिष्ट ( २ )
परिशिष्ट (२)
'श्रीमद् राजचन्द्र में आये हुए उद्धरणोंकी वर्णानुक्रमसूची
अखे (खै) पुरुश ( ख ) एक वरख हे ( है ) ।
* अजाहोतव्यं ( अजैर्यष्टव्यं )
૨
[ एक सवैया ]
[ शतपथब्राह्मण ? ]
अधुवे असासयंमि संसार (रं) मि दुख (क्ख ) पउराए । किं नाम दुष्यंतकम्मयं ( हुज्ज कम्मं ) जेणाहं दुग्गई (ई ) नगछेध्या ( न गच्छिज्जा ) ॥
[ उत्तराध्ययन ८ - १] ९९-४
पृष्ठ लाइन ४५०-२८
२७-३३
[ स्वरोदयज्ञान ९८, पृ. २६ चिदानन्दजी; भीमसिंह माणेक बम्बई १९२४] अहो जिणेहि सावज्जा वित्ति (त्ती ) साहु ( हू ) ण देसियं (या) ।
अनुक्रमे संयम स्पर्शतोजी पाम्यो क्षायकभाव रे । संयम श्रेणी फूलडेजी पूजूं पद निष्पाव रे ॥ [संयमश्रेणस्तिवन १-२ पंडित उत्तमविजयजी ; प्रकरणरत्नाकर भाग २ पृ. ६९९] २७५-४,११ अन्य पुरुषकी दृष्टिमें जग व्यवहार लखाय ।
वृंदावन जब जग नहीं कौन ( को ) व्यवहार बताय ? [ विहार वृन्दावन ] अलख नाम धुनी लगी गगनमें मगन भया मन मेराजी ।
आसन मारी सुरत दृढधारी दिया अगम-घर डेराजी | दरश्या अलख देदाराजी । [छोटम-अध्यात्मभजनमाला पद १३३ पृ. ४९; कहानजी धर्मसिंह बम्बई, १८९७] २२६–१९ ४०२-१८
अनि अप्पणोवि देहमि नायरंति ममाइयं ।
]
[ अहर्निश अधिको प्रेम लगावे जोगानल घटमाहिं ( मांहि ) जगावे ।
अल्पाहार आसन दृढ़ धरे नयनथकी निद्रा परहरे ॥
४८८-१९
१२९-९
मोख (क्ख ) साहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ||
[ दशवैकालिकसूत्र ५-१-९२ प्रो. अभ्यंकरद्वारा सम्पादित १९३२] ७३४-३१ अहो नि (णि) चं तवो कम्मं सव्वजिणेहिं वन्नि (णि) यं ।
जाव (य) लज्जासमा वित्ति (त्ती) एगभत्तं च भोयणं ॥ [ दशवैकालिकसूत्र ६ - २३] ७३५-४ अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया ।
पृष्ठ लाइन
x अक्षय पुरुष एक वृक्ष है।
* मूलमै राजचन्द्रजीने 'अजाšोतव्यं' पाठ दिया है। यही पाठ रखना चाहिये । व्याकरणकी दृष्टिसे यह शुद्ध है।
-सम्पादक.
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