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श्रीमद राजचन्द्र
हेमचन्द्र चारों विद्याओंके समुद्र थे, और वे कलिकालसर्वज्ञके नामसे प्रख्यात थे। कहा जाता है कि हेमचन्द्र आचार्यने सब मिलाकर साढ़े तीन करोड़ श्लोकोंकी रचना की है । हेमचन्द्रने व्याकरण, तर्क, साहित्य, छन्द, योग, नीति आदि विविध विषयोंपर अपनी लेखनी चलाकर जैन साहित्यके गौरवको बढाया है । हेमचन्द्रने गुजरातकी राजधानी अणहिल्लपुर पाटणमें सिद्धराज जयसिंहकी सभामें बहुत सन्मान प्राप्त किया था, और सिद्धराजके आग्रहसे गुजरातके लिये सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक व्याकरणकी रचना की थी। सिद्धराजके उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल हेमचन्द्रको राजगुरुकी तरह मानते थे । राजचन्द्रजी लिखते हैं-" श्रीहेमचन्द्राचार्य महाप्रभावक बलवान क्षयोपशमवाले पुरुष थे । वे इतने सामर्थ्यवान् थे कि वे चाहते तो एक जुदा ही पंथ चला सकते थे । उन्होंने तीस हजार घरोंको श्रावक बनाया । तीस हजार घर अर्थात् सवा लाखसे डेढ़ लाख मनुष्योंकी संख्या हुई। श्रीसहजानन्दजीके सम्प्रदायमें कुल एक लाख आदमी होंगे । जब एक लाखके समूहसे सहजानंदजीने अपना सम्प्रदाय चलाया तो श्रीहेमचन्द्राचार्य चाहते तो डेढ़ लाख अनुयायियोंका एक जुदा ही सम्प्रदाय चला सकते थे। परन्तु श्रीहेमचन्द्राचार्यको लगा कि सम्पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर ही धर्मप्रवर्तक हो सकते हैं । हम तो केवल उन तीर्थंकरोंकी आज्ञासे चलकर उनके परमार्थमार्गको प्रकाश करनेके लिये प्रयत्न करनेवाले हैं। श्रीहेमचन्द्राचार्यने वीतरागमार्गके परमार्थका प्रकाश करनेरूप लोकानुग्रह किया, "वसा करनेकी ज़रूरत भी थी । वीतरागमार्गके प्रति विमुखता और अन्यमार्गकी तरफसे विषमता ईर्ष्या आदि आरंभ हो चुके थे। ऐसी विषमतामें लोगोंको वीतराग मार्गकी ओर फिराने, लोकोपकार करने तथा उस मार्गके रक्षण करनेकी उन्हें ज़रूरत मालूम हुई । हमारा चाहे कुछ भी हो, इस मार्गका रक्षण होना ही चाहिये । इस तरह उन्होंने अपने आपको अर्पण कर दिया। परन्तु इस तरह उन जैसे ही कर सकते हैं-वैसे भाग्यवान, माहात्म्यवान, क्षयोपशमवान ही कर सकते हैं । जुदा जुदा दर्शनोंको यथावत् तोलकर अमुक दर्शन सम्पूर्ण सत्यस्वरूप हैं, जो ऐसा निश्चय कर सके, ऐसा पुरुष ही लोकानुग्रह परमार्थप्रकाश और आत्मसमर्पण कर सकता है।" राजचन्द्रजीने हेमचन्द्रके योगशास्त्रके मंगलाचरणका विवेचन भी किया है। क्षेत्रसमास
क्षेत्रसमासके कर्ता खेताम्बर सम्प्रदायमें जैनसिद्धांतके प्रखर विद्वान् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं। इनका जन्म सं० ६४५ में हुआ था। इन्होंने विशेषावश्यकमाण्य विशषणवती आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है। जिनभद्रगणिके क्षेत्रसमासके ऊपर मलयगिरीकी टीका है । प्रकरणरत्नाकरमें रत्नशेखरसूरिकृत लघुक्षेत्रसमास भाषांतर सहित छपा है। ज्ञानेश्वरी
ज्ञानेश्वर महाराजका जन्म सं० १३३२ में हुआ था। इनके पिताने संन्यासी होकर बादमें गृहस्थाश्रम धारण किया था । ज्ञानेश्वर महाराजने भावार्थदीपिका नामक मराठीमें गीताकी व्याख्या लिखी है, जो दक्षिणमें बहुत उच्च श्रेणीकी मानी जाती है। यह व्याख्यान अद्वैतज्ञानसे पूर्ण है। ज्ञानेश्वरी महाराजने इस ग्रन्थको १५वें वर्षमें लिखा है । ज्ञानेश्वरने अमृतानुभव नामका एक वेदान्तका ग्रंथ भी लिखा है । इसके अतिरिक्त इन्होंने अन्य अनेक पद अभंग आदि रचे हैं। बानेश्वरने. २१ वर्षकी अवस्थामें जीवित समाधि ली । ज्ञानेश्वरी गीताके हिन्दी गुजराती अनुवाद भी हुए हैं।