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________________ ७६६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ८४८, ८४९, ८५० मैं शरीर नहीं, परन्तु उससे भिन्न ज्ञायक आत्मा हूँ, और नित्य शाश्वत हूँ। यह वेदना मात्र पूर्वकर्म है, परन्तु यह मेरा स्वरूप नाश करनेको समर्थ नहीं। इसलिये मुझे खेद नहीं करना चाहिये-इस तरह आत्मार्थीका अनुप्रेक्षण होता है । ॐ. ८४८ ववाणीआ, ज्येष्ठ सुदी ११, १९५६ आर्य त्रिभुवनके अल्प समयमें शान्तवृत्तिसे देहोत्सर्ग करनेकी खबर सुनी। सुशील मुमुक्षुने अन्य स्थान ग्रहण किया। जीवके विविध प्रकारके मुख्य स्थान हैं । देवलोकमें इन्द्र तथा सामान्य त्रयस्त्रिंशत् आदि स्थान हैं । मनुष्यलोकमें चक्रवत्ती, वासुदेव, बलदेव, तथा मांडलिक आदि स्थान हैं । तिर्यंचोंमें भी कहीं इष्ट भोगभूमि आदि स्थान हैं। उन सब स्थानोंको जीव छोड़ेगा, इसमें स्सन्देह नहीं। ये जाति, गोती और बंधु आदि इन सबके अशाश्वत अनित्य वास हैं । शान्तिः. ८४९ ववाणीआ, ज्येष्ठ सुदी १३ सोम. १९५६ ॐ. मुनियोंको चातुर्माससंबंधी विकल्प कहाँसे हो सकता है ! निम्रन्थ क्षेत्रको किस सिरेसे बाँधै ! सिरेका तो कोई संबंध ही नहीं। निम्रन्थ महात्माओंका दर्शन और समागम मुक्तिकी सम्यक् प्रतीति कराते हैं । तथारूप महात्माओंके एक आर्य वचनका सम्यक् प्रकारसे अवधारण होनेसे यावत् काल मोक्ष होती है, ऐसा श्रीमान् तीर्थकरने कहा है, वह यथार्थ है। इस जीवमें तथारूप योग्यताकी आवश्यकता है। शान्तिः। (२) ॐ. पत्र और समयसारकी प्रति मिली । कुन्दकुन्दाचार्यकृत समयसार ग्रन्थ जुदा है। इस प्रन्थका कर्ता जुदा है, और ग्रन्थका विषय भी जुदा है। अन्य उत्तम है । आर्य त्रिभुवनकी देहोत्सर्ग करनेकी खबर तुम्हें मिली, उससे खेद हुआ वह यथार्थ है। ऐसे कालमें आर्य त्रिभुवन जैसे मुमुक्षु विरले ही हैं। दिन प्रतिदिन शांतावस्थासे उसकी आत्मा स्वरूप-लक्षित होती जाती थी । कर्मतत्त्वका सूक्ष्मतासे विचार कर, निदिध्यासन कर, आत्माको तदनुयायी परिणतिका जिससे निरोध हो-यह उसका मुख्य लक्ष था। उसकी विशेष आयु होती तो वह मुमुक्षु चारित्रमोहको क्षीण करनेके लिये अवश्य प्रवृत्ति करता। शांतिः शांतिः शांतिः. ८५० ववाणीआ, ज्येष्ठ वदी ९ गुरु. १९५६ व्यसन बढ़ानेसे बढ़ता है, और नियममें रखनेसे नियममें रहता है। व्यसनसे कायाको बहुत नुकसान होता है, तथा मन परवश हो जाता है। इससे इस लोक और परलोकका कल्याण चूक जाता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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