SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 855
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्र ८४६, ८४७] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष ७६५ उपाद्धातसे वाचकको, श्रोताको, अल्प अल्प मतांतरकी वृत्ति विस्मृत होकर, जिससे ज्ञानी पुरुषोंके आत्मस्वभावरूप परमधर्मके विचार करनेकी स्फूरणा हो, ऐसा सामान्यतः लक्ष रखना। यह सहज सूचना है । शान्तिः. ८४६ ववाणीआ, वैशाख वदी १३ शनि. १९५६ ॐ. जहाँ बहुत विरोधी गृहवासीजन अथवा जहाँ आहार आदिका जनसमूहका संकोचभाव रहता हो, वहाँ चातुर्मास करना योग्य नहीं; नहीं तो सब क्षेत्र श्रेयकारी ही हैं। आत्मार्थीको विक्षेपका हेतु क्या हो सकता है ! उसे तो सब समान ही हैं। आत्मभावसे विचरते हुए ऐसे आर्य पुरुषोंको धन्य है । ॐ शान्तिः । ८४७ ववाणीआ, वैशाख वदी १५ सोम. १९५६ ॐ. आर्य मुनिवरों के लिये अविक्षेपभाव संभव है । विनयभक्ति यह मुमुक्षुओंका धर्म है । अनादिसे चपल ऐसे मनको स्थिर करना चाहिये । प्रथम वह अत्यंतरूपसे सामने होता हो तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं । क्रम क्रमसे उस मनको महात्माओंने स्थिर किया है-शान्त किया हैक्षय किया है-यह सचमुच आश्चर्यकारक है । (२) * क्षायोपशमिक असंख्य, क्षायक एक अनन्य--अध्यात्मगीता. मनने और निदिध्यासन करनेसे, इस वाक्यसे जो परमार्थ अंतरात्मवृत्तिमें प्रतिभासित हो, उसे यथाशक्ति लिखना योग्य है । शान्तिः. ॐ. यथार्थरूपसे देखें तो शरीर वेदनाकी मूर्ति है । समय समयपर जीव उसके द्वारा वेदनाका ही अनुभव करता है। कचित् साता और नहीं तो प्रायः वह असाताका ही वेदन करता है । मानसिक असाताकी मुख्यता होनेपर भी वह सूक्ष्म सम्यग्दृष्टिको मालूम हो जाती है। शारीरिक असाताकी मुख्यता स्थूल दृष्टिवानको भी मालूम हो जाती है । जो वेदना पूर्वमें सुदृढ़ बंधनसे जीवने बाँधी है, उस वेदनाके उदय होनेपर उसे इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र अथवा जिनेन्द्र भी रोकनेको समर्थ नहीं । उसका उदय जीवको वेदन करना ही चाहिये । अज्ञानदृष्टि जीव उसका खेदसे वेदन करें, तो भी कुछ वह वेदना घटती नहीं, अथवा होती हुई रुकती नहीं। तथा सत्यदृष्टिवान जीव यदि उसका शांतभावसे वेदन करें, तो वह वेदना बढ़ नहीं जाती । हाँ, वह नवीन बंधका हेतु नहीं होती-उससे पूर्वकी बलवान निर्जरा होती है । आत्मार्थीको यही कर्तव्य है। * बायोपश्यामिक भाव असंख्य होते हैं, परन्तु शायिकमाव एक और अनन्य ही होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy