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________________ ६७२ भीमद् राजवन्द्र [पत्र ७.५ आत्मा भासित होती है; और जो जाननेरूप स्वभाव विपरीत-भावको प्राप्त होता था, वह अब सम्यक्भावको प्राप्त होता है । जिस तरह वास्तवमें दिशा-भ्रम कुछ भी वस्तु नहीं है, और केवल गमनरूप क्रियासे इष्ट गॉवकी प्राप्ति नहीं होती; उसी तरह वास्तवमें मिथ्यात्व भी कोई चीज नहीं है, और उसके साथ जाननेरूप स्वभाव भी रहता है; परन्तु बात इतनी ही है कि साथमें मिथ्यात्वरूप भ्रम होनेसे निजखरूपभावमें परम स्थिति नहीं होती । दिशा-भ्रमके दूर हो जानेसे इच्छित गाँवकी ओर फिरनेके बाद मिथ्यात्व भी दूर हो जाता है, और निजस्वरूप शुद्ध ज्ञानात्मपदमें स्थिति हो सकती है, इसमें किसी भी सन्देहको कोई अवकाश नहीं है। ७०५ ववाणीआ, चैत्र सुदी ५, १९५३ तीनों समकितमेंसे किसी भी एक समकितको प्राप्त करनेसे जीव अधिकसे अधिक पन्दरह भवमें मोक्ष प्राप्त करता है; और कमसे कम उसे उसी भवमें मोक्ष होती है; और यदि वह उस समकितका वमन कर दे तो वह अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल-परावर्तन कालतक संसार-परिभ्रमण करके मोक्ष प्राप्त करता है। समकित प्राप्त करनेके पश्चात् अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल-परावर्तन संसार होता है। यदि क्षयोपशम अथवा उपशम समकित हो तो जीव उसका वमन कर सकता है, परन्तु यदि क्षायिक समकित हो तो उसका वमन नहीं किया जाता । क्षायिकसमकिती जीव उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करता है; यदि वह अधिक भव करे तो तीन भव करता है, और किसी जीवकी अपेक्षा तो कभी चार भव भी होते हैं। युगलियोंकी आयुके बंध होनेके पश्चात् यदि क्षायिक समकित उत्पन्न हुआ हो तो चार भव होने संभव हैं-प्रायः किसी जीवको ही ऐसा होता है। भगवान्के तीर्थकर निग्रंथ, निग्रंथिनी, श्रावक और श्राविकाको कुछ सबको ही जीव-अजीवका ज्ञान था, और इस कारण उन्हें समकित कहा है, यह शास्त्रका अभिप्राय नहीं है। उनमेंसे बहुतसे जीवोंको तो, 'तीर्थकर सच्चे पुरुष हैं, सच्चे मोक्षमार्गके उपदेष्टा हैं, और वे जिस तरह कहते हैं मोक्षमार्ग उसी तरह है, ' ऐसी प्रतीतिसे, ऐसी रुचिसे, श्रीतीर्थकरके आश्रयसे और निश्चयसे समकित कहा गया है । ऐसी प्रतीति, ऐसी रुचि और ऐसे आश्रयका तथा ऐसी आज्ञाका जो निश्चय है, वह भी एक तरहसे जीव अजीवका ज्ञान ही है। 'पुरुष सचे मिले हैं और उनकी प्रतीति भी ऐसी सच्ची हुई है कि जिस तरह ये परमकृपाल कहते हैं, मोक्षमार्ग उसी तरह है-मोक्षमार्ग उसी तरह हो सकता है, उस पुरुषके लक्षण आदि भी वीतरागताकी सिद्धि करते हैं । तथा जो वीतराग होता है वह पुरुष यथार्थ वक्ता होता है, और उसी पुरुषकी प्रतीतिसे मोक्षमार्ग स्वीकार किया जा सकता है' ऐसी सुविचारणा भी एक तरहसे गौणरूपसे जीव-अजीवका ही ज्ञान है। ___ उस प्रतीतिसे, उस रुचिसे और उस आश्रयसे बादमें जीवाजीवका स्पष्ट विस्तारसहित अनुक्रमसे ज्ञान होता है । तथारूप पुरुषकी आज्ञाकी उपासना करनेसे, राग-द्वेषका क्षय होकर वतिरागदशा होती है । तधारूप सत्पुरुषका प्रत्यक्ष योग हुए बिना यह समकित होना कठिन है। हाँ, उस पुरुषके वचनरूप शास्त्रोंसे पूर्वमें आराधक किसी जीवको समकित होना संभव है, अथवा कोई कोई भाचार्य प्रत्यक्षरूपसे उस वचनके कारणसे किसी जीवको समकित प्राप्त कराते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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