SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 759
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्र ७०४] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष ६७२ ही है । सिद्धका केवलज्ञानीका और सम्यकदृष्टिका ज्ञान मिथ्यात्वरहित है । जीवको मिथ्यात्व भ्रांतिस्वरूप है । उस भ्रांतिके यथार्थ समझमें आ जानेपर उसकी निवृत्ति हो सकती है। मिथ्यात्व दिशाकी भ्रांतिरूप है। (३) ज्ञान जीवका स्वभाव है इसलिये वह अरूपी है, और ज्ञान जबतक विपरीतरूपसे जाननेका कार्य करता है, तबतक उसे अज्ञान ही कहना चाहिये, ऐसी निग्रंथकी परिभाषा है । परन्तु यहाँ ज्ञानके दूसरे नामको ही अज्ञान समझना चाहिये। शंकाः-यदि ज्ञानका ही दूसरा नाम अज्ञान हो तो जिस तरह ज्ञानसे मोक्ष होना कहा है, उसी तरह अज्ञानसे भी मोक्ष होनी चाहिये । तथा जिस तरह मुक्त जीवोंमें ज्ञान बताया गया है, उसी तरह उनमें अज्ञान भी कहना चाहिये ।। ___समाधानः-जैसे कोई डोरा गाँठके पड़नेसे उलझा हुआ और गाँठके खुल जानेसे उलझनरहित कहा जाता है; यद्यपि देखा जाय तो डोरे दोनों ही हैं, फिर भी गाँठके पड़ने और खुल जानेकी अपेक्षा ही उन्हें उलझा हुआ और उलझनरहित कहा जाता है; उसी तरह मिथ्यात्वज्ञानको ' अज्ञान' और सम्यग्ज्ञानको 'ज्ञान' कहा गया है। परन्तु मिथ्यात्वज्ञान कुछ जड़ है और सम्यग्ज्ञान चेतन है, यह बात नहीं है। जिस तरह गाँठवाला डोरा और बिना गाँठका डोरा दोनों ही डोरे हैं, उसी तरह मिथ्यात्वज्ञानसे संसार-परिभ्रमण और सम्यग्ज्ञानसे मोक्ष होती है । जैसे यहाँसे पूर्व दिशामें दस कोसपर किसी गाँवमें जानेके लिये प्रस्थित कोई मनुष्य, यदि दिशाके भ्रमसे पूर्वके बदले पश्चिम दिशामें चला जाय, तो वह पूर्व दिशावाले गाँवमें नहीं पहुँच सकता; परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसने कुछ चलनेरूप ही क्रिया नहीं की; उसी तरह देह और आत्माके भिन्न भिन्न होनेपर भी, जिसने देह और आत्माको एक समझ लिया है, वह जीव देह-बुद्धिसे संसार-परिभ्रमण करता है। परन्तु उससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसने कुछ जाननेरूप ही कार्य नहीं किया। उक्त जीव जो पूर्वसे पश्चिमकी ओर गया है-यह जिस तरह पूर्वको पश्चिम मान लेनेरूप भ्रम है; उसी तरह देह और आत्माके भिन्न भिन्न होनेपर भी दोनोंको एक मानना भ्रम ही है। परन्तु पश्चिमकी ओर जाते हुए चलते हुएजिस तरह चलनेरूप स्वभाव तो रहता ही है, उसी तरह देह और आत्माको एक समझनेमें भी जाननेरूप स्वभाव तो रहता ही है । जिस तरह यहाँ पूर्वकी जगह पश्चिमको ही पूर्व मान लेनेरूप जो भ्रम है वह भ्रम, तथारूप सामग्रीके मिलनेसे समझमें आ जानेसे जब पूर्व पूर्व समझमें आता है और पश्चिम पश्चिम समझमें आता है, उस समय दूर हो जाता है, और पथिक पूर्वकी ओर चलने लगता है उसी तरह जिसने देह और आत्माको एक मान रक्खा है, वह सद्गुरु-उपदेश आदि सामग्रीके मिलनेपर, जब यह बात यथार्थ समझमें आ जाती है कि वे दोनों भिन्न भिन्न हैं, उस समय उसका भ्रम दूर होकर आत्माके प्रति ज्ञानोपयोग होता है। जैसे भ्रममें पूर्वको पश्चिम और पश्चिमको पूर्व मान लेनेपर भी, पूर्व पूर्व ही था और पश्चिम पश्चिम ही था, केवल भ्रमके कारण ही वह विपरीत भासित होता था; उसी तरह अज्ञानमें भी, देह देह और आत्मा आत्मा होनेपर भी वे उस तरह भासित नहीं होते, यह विपरीत ज्ञान है। उसके यथार्थ समझनेमें आनेपर, भ्रमके निवृत्त हो जानेसे देह देह भासित होती है और आत्मा
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy