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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [६. उसके उपादान कारण हैं-ऐसा शास्त्रमें कहा है । इससे उपादानका नाम लेकर जो कोई उस निमितका त्याग करेगा वह सिद्धत्वको नहीं पा सकता, और वह भ्रांतिमें ही रहा करेगा। क्योंकि शासमें उस उपादानकी व्याख्या सच्चे निमित्तके निषेध करनेके लिये नहीं कही । परन्तु शास्त्रकारकी कही दुई उस व्याख्याका यही परमार्थ है कि उपादानके अजाग्रत रखनेसे सच्चा निमित्त मिलनेपर भी काम न होगा, इसलिये सदनिमित्त मिलनेपर उस निमित्तका अवलंबन लेकर उपादानको सन्मुख करना चाहिये, और पुरुषार्थहीन न होना चाहिये । मुखथी शान कये अने, अंतर् व्यों न मोह । ते पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीनो द्रोह ॥ १३७॥ जो मुखसे निश्चय-प्रधान वचनोंको कहता है, परन्तु अंतरसे जिसका अपना मोह छटा नहीं, ऐसा पामर प्राणी मात्र केवलज्ञानी कहलवानेकी कामनासे ही सद्ज्ञानी पुरुषका द्रोह करता है। दया शांति समता क्षमा, सत्य त्याग वैराग्य । होय मुमुक्षुघटविषे, एह सदाय मुजाग्य ॥ १३८ ॥ दया, शांति, समता, सत्य, त्याग, और वैराग्य गुण मुमुक्षुके घटमें सदा ही जाग्रत रहते हैं, अर्थात् इन गुणोंके बिना तो मुमुक्षुपना भी नहीं होता । मोहभाव क्षय होय ज्यां, अथवा होय प्रशांत । ते कहिये झानी दशा, पाकी कहिये भ्रांत ॥ १३९॥ ___ जहाँ मोहभावका क्षय हो गया है, अथवा जहाँ मोह-दशा क्षीण हो गई हो, उसे ज्ञानीकी दशा कहते हैं, और नहीं तो जिसने अपनेमें ही ज्ञान मान लिया हो, वह तो केवल भ्रांति ही है। सकळ जगत् ते एठवत् , अथवा स्वमसमान । ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी वाचाहान ॥ १४०॥ समस्त जगत्को जिसने उच्छिष्ट समान समझा है, अथवा जिसके ज्ञानमें जगत् स्वप्नके समान मालूम होता है, वही ज्ञानीकी दशा है; बाकी तो सब केवल वचन-ज्ञान-मात्र कथन ज्ञान-ही है। स्थानक पांच विचारीने, छठे वर्ने जेह । पामे स्थानक पांच, एमां नहीं संदेह ॥ १४१॥ पाचों पदोंका विचारकर जो छठे पदमें प्रवृत्ति करता है जो मोक्षके उपाय ऊपर कहे है, उनमें प्रवृत्ति करता है वह पाँचवें स्थानक मोक्षपदको पाता है। देह छतां जेनी दशा, वर्षे देहातीत । तेशानीनां चरणमा, हो वंदन अगणित ॥ १४२॥ जिसे पूर्व प्रारब्धके योगसे देह रहनेपर भी जिसकी दशा उस देहसे अतीत-देह आदिको कल्पनारहित--आत्मामय रहती है, उस हानी-पुरुषके चरण-कमलमें अगणित बार बंदन हो । वंदन हो । श्रीसद्गुरुचरणार्पणमस्तु ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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