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________________ आत्मसिद्धि यदि परमार्थकी इच्छा करते हो तो सच्चा पुरुषार्थ करो, और भवस्थिति आदिका नाम लेकर आत्मार्थका छेदन न करो। निश्चयवाणी सांभळी, साधन तनवा नोय । निश्चय राखी लक्षा, साधन करवां सोय ॥ १३१ ॥ आत्मा अबंध है, असंग है, सिद्ध है, इस निश्चय-प्रधान वाणीको सुनकर साधनोंका त्याग करना योग्य नहीं । परन्तु तथारूप निश्चयको लक्षमें रखकर साधन जुटाकर उस निश्चय स्वरूपको प्राप्त करना चाहिये । नय निश्चय एकांतथी, आमां नयी कहेल । - एकांते व्यवहार नहीं, बने साथ रेहल ॥ १३२ ॥ यहाँ एकांतसे निश्चयनयको नहीं कहा, अथवा एकांतसे व्यवहारनयको भी नहीं कहा। दोनों ही जहाँ जहाँ जिस जिस तरह घटते हैं, उस तरह साथ रहते हैं । गच्छमतनी जे कल्पना, ते नहीं सद्वयवहार । भान नहीं निजरूपन, ते निश्चय नहीं सार ॥ १३३ ॥ गच्छ-मतकी जो कल्पना है, वह सद्वयवहार नहीं; किन्तु आत्मा के लक्षणमें जो दशा कही है और मोक्षके उपायमें जिज्ञासुके जो लक्षण आदि कहे हैं, वही सयवहार हैउसे यहाँ संक्षपसे कहा है । जीवको अपने स्वरूपका तो भान नहीं-जिस तरह देह अनुभवमें आती है, उस तरह आत्माका अनुभव तो हुआ नहीं बल्कि देहाध्यास ही रहता है और वह वैराग्य आदि साधनके प्राप्त किये बिना ही निश्चय निश्चय चिल्लाया करता है, किन्तु वह निश्चय सारभूत नहीं है। आगळ ज्ञानी यई गया, वर्तमानमा होय । . ___थाशे काळ भविष्यमां, मार्गभेद नहीं कोय ॥ १३४ ॥ भूतकालमें जो ज्ञानी-पुरुष हो गये हैं, वर्तमानकालमें जो मौजूद हैं, और भविष्यकालमें जो होंगे, उनका किसीका भी मार्ग भिन्न नहीं होता, अर्थात् परमार्थसे उन सबका एक ही मार्ग है; और यदि उसे प्राप्त करने योग्य व्यवहारको, उसी परमार्थके साधकरूपसे, देश काल आदिके कारणभेदपूर्वक कहा हो, तो भी वह एक ही फलको उत्पन्न करनेवाला है, इसलिये उसमें परमार्थसे भेद नहीं है । सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय। . सद्गुरुधाज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण माय ॥ १३५ ॥ सब जीवोंमें सिद्ध-सत्ता समान है, परन्तु वह तो उसे ही प्रगट होती है जो उसे समझता है । उसके प्रगट होनेमें सद्गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना चाहिये, तथा सद्गुरुसे उपदेश की हुई जिन-दशाका विचार करना चाहिये-वे दोनों ही निमित्त कारण है। .: उपादानं नाम ई, एजे तजे निमित्त । - . . पामे नहीं सिद्धत्वने, हे भ्रांतिमा स्थित ॥ १३६ ॥ सहरुको आना आदि धात्म-साधनके निमित्त कारण हैं, और आत्माके ज्ञान दर्शन आदि
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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