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________________ [६४३ ५३८ श्रीमद् राजचन्द्र लानेसे इन्द्रियोंको प्रियता होती नहीं, और उससे क्रमसे इन्द्रियाँ वशमें होती हैं । तथा पाँच इन्द्रियोंमें भी जिहा इन्द्रियके वश करनेसे बाकीकी चार इन्द्रियाँ सहज ही वश हो जाती हैं। तुच्छ आहार करना चाहिये । किसी रसवाले पदार्थकी ओर प्रेरित होना नहीं । बलिष्ठ आहार करना नहीं। जैसे किसी बर्तनमें खून, माँस, हड्डी, चमड़ा, वीर्य, मल, और मूत्र ये सात धातुएँ पड़ी हुई हों, और उसकी ओर कोई देखनेके लिये कहे तो उसके ऊपर अरुचि होती है, और यूँकातक भी नहीं जाता उसी तरह स्त्री-पुरुषके शरीरकी रचना है। परन्तु उसमें ऊपर ऊपरसे रमणीयता देखकर जीवको मोह होता है. और उसमें वह तृष्णापूर्वक प्रेरित होता है । अज्ञानसे जीव भूलता है-ऐसा विचार कर, तुच्छ समझकर, पदार्थके ऊपर अरुचिभाव लाना चाहिये । इसी तरह हरेक वस्तुकी तुच्छता समझनी चाहिए। इस तरह समझकर मनका निरोध करना चाहिये । तीर्थकरने उपवास करनेकी आज्ञा की है, वह केवल इन्द्रियोंको वश करनेके लिये ही की है। अकेले उपवासके करनेसे इन्द्रियाँ. वश होती नहीं, परन्तु यदि उपयोग हो तो-विचारसहित हो तो-वश होती हैं । जिस तरह लक्षरहित बाण व्यर्थ, ही चला जाता है, उसी तरह उपयोगरहित उपवास आत्मार्थके लिये होता नहीं। ___ अपनेमें कोई गुण प्रगट हुआ हो, और उसके लिये यदि कोई अपनी स्तुति करे, और यदि उससे अपनी आत्मामें अहंकार उत्पन्न हो तो वह पीछे हट जाती है । अपनी आत्माकी निन्दा करे नहीं, अभ्यंतर दोष विचारे नहीं, तो जीव लौकिक भावमें चला जाता है। परन्तु यदि अपने दोषोंका निरीक्षण करे, अपनी आत्माकी निन्दा करे, अहंभावसे रहित होकर विचार करे, तो सत्पुरुषके आश्रयसे आत्मलक्ष होता है। मार्गके पानेमें अनन्त अन्तराय हैं । उनमें फिर मैंने यह किया '' मैंने यह कैसा सुन्दर किया' इस प्रकारका अभिमान होता है । ' मैंने कुछ भी किया ही नहीं ' यह दृष्टि रखनेसे ही वह अभिमान दूर होता है। लौकिक और अलौकिक इस तरह दो भाव होते हैं । लौकिकसे संसार और अलौकिकसे मोक्ष होती है। बाह्य इन्द्रियोंको वश किया हो तो सत्पुरुषके आश्रयसे अंतर्लक्ष हो सकता है। इस कारण बाह्य इन्द्रियोंको वशमें करना श्रेष्ठ है । बाह्य इन्द्रियाँ वशमें हो जॉय, और सत्पुरुषका आश्रय न हो तो लौकिकभावमें चले जानेकी संभावना रहती है। उपाय किये बिना कोई रोग मिटता नहीं। इसी तरह जीवको लोभरूपी जो रोग है, उसका उपाय किये बिना वह दूर होता नहीं। ऐसे दोषके दूर करनेके लिये जीव जरा भी उपाय करता नहीं । यदि उपाय करे तो वह दोष हालमें ही भाग जाय । कारणको खड़ा करो तो ही कार्य होता है। कारण बिना कार्य नहीं होता । सचे उपायको जीव खोजता नहीं । जीव ज्ञानी-पुरुषके वचनोंको श्रवण करे तो उसकी एवजमें प्रताति होती नहीं । ' मुझे लोभ छोड़ना है, ऐसी बीजभूत भावना हो तो. दोष दूर होकर अनुक्रमसे 'बीज-ज्ञान ' प्रगट होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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