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________________ ६४३] । उपदेश-छाया इस जविकी साथ राग-द्वेष लगे हुए हैं । जीव यधपि अनंतज्ञान-दर्शनसहित है, परन्तु रागद्वेषके कारण वह उससे रहित ही है, यह बात जीवके ध्यानमें आती नहीं। सिद्धको राग-द्वेष नहीं । जैसा सिद्धका स्वरूप है, वैसा ही सब जीवोंका भी स्वरूप है। जीवको केवल अज्ञानके कारण यह ध्यानमें आता नहीं। उसके लिये विचारवानको सिद्धके स्वरूपका विचार करना चाहिये, जिससे अपना स्वरूप समझमें आ जाय ।। जैसे किसी मनुष्यके हाथमें चिंतामणि रत्न आया हो, और उसे उसकी (पहिचान) है तो उसे उस रत्नके प्रति बहुत ही प्रेम उत्पन्न होता है, परन्तु जिसे उसकी खबर ही नहीं, उसे उसके प्रति कुछ भी प्रेम उत्पन्न होता नहीं। इस जीवकी अनादिकालकी जो भूल है, उसे दूर करना है । दूर करनेके लिये जीवकी बड़ीसे बड़ी भूल क्या है ! उसका विचार करना चाहिये, और उसके मूलका छेदन करनेकी ओर लक्ष रखना चाहिये । जबतक मूल रहती है तबतक वह बढ़ती ही है। 'मुझे किस कारणसे बंधन होता है ? और वह किससे दूर हो सकता है' ! इसके जाननेके लिये शास्त्र रचे गये हैं। लोगोंमें पुजनेके लिये शास्त्र नहीं रचे गये । इस जीवका स्वरूप क्या ह ? जबतक जीवका स्वरूप जाननेमें न आवे, तबतक अनन्त जन्म मरण करने पड़ते हैं । जीवकी क्या भूल है ! वह अभीतक ध्यानमें आती नहीं। जीवका केश नष्ट होगा तो भूल दूर होगी। जिस दिन भूल दूर होगी उसी दिनसे साधुपना कहा जावेगा । यही बात श्रावकपनेके लिये समझनी चाहिये । कर्मकी वर्गणा जीवको दूध और पानीके संयोगकी तरह है। अमिके संयोगसे जैसे पानीके जल जानेपर दूध बाकी रह जाता है, इसी तरह ज्ञानरूपी अग्निसे कर्मवर्गणा नष्ट हो जाती है।। देहमें अहंभाव माना हुआ है, इस कारण जीवकी भूल दूर होती नहीं। जीव देहकी साथ एकमेक हो जानेसे ऐसा मानने लगता है कि ' मैं बनिया हूँ,' 'ब्राह्मण हूँ,' परन्तु शुद्ध विचारसे तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि मैं शुद्ध स्वरूपमय हूँ' । आत्माका नाम ठाम कुछ भी नहीं हैजीव इस तरह विचार करे तो उसे कोई गाली वगैरह दे, तो भी उससे उसे कुछ भी लगता नहीं। जहाँ जहाँ कहीं जीव ममत्व करता है वहाँ वहाँ उसकी भूल है । उसके दूर करनेके लिये ही शाख रचे गये हैं। चाहे कोई भी मर गया हो उसका यदि विचार करे तो वह वैराग्य है। जहाँ जहाँ ' यह मेरा भाई बन्धु है' इत्यादि भावना है, वहाँ वहाँ कर्म-बंधका कारण है। इसी तरहकी भावना यदि साधु भी अपने चेलेके प्रति रक्खे तो उसका आचार्यपना नाश हो जाय । वह अदंभता, निरहंकारता करे तो ही आत्माका कल्याण हो सकता है। पाँच इन्द्रियाँ किस तरह वश होती हैं ! वस्तुओंके ऊपर तुच्छ भाव लानेसे । जैसे फलमें यदि सुगंध हो तो उससे मन संतुष्ट होता है, परन्तु वह सुगंध थोड़ी देर रहकर नष्ट हो जाती है, और फल कुम्हला जाता है, फिर मनको कुछ भी संतोष होता नहीं। उसी तरह सब पदार्थोंमें तुच्छमाव ६८
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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