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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६३३ वेदोक्त मार्गमें जो चार आश्रमोंकी व्यवस्था की है, वह एकातरूपसे नहीं हैं । वामदेव, शुकदेव, जड़भरतजी इत्यादि आश्रमके क्रम बिना ही त्यागरूपसे विचरे हैं । जिनसे वैसा होना अशक्य हो, वे परिणाममें यथार्थ त्याग करनेका लक्ष रखकर आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करें तो यह सामान्य रीतिसे ठीक है, ऐसा कहा जा सकता है । परन्तु आयुकी ऐसी क्षणभंगुरता है कि वैसा क्रम भी किसी विरलेको ही प्राप्त होनेका अवसर आता है। कदाचित् वैसी आयु प्राप्त हुई भी हो, तो वैसी वृत्तिसे अर्थात् वैसे परिणामसे यथार्थ त्याग हो सके, ऐसा लक्ष रखकर प्रवृत्ति करना तो किसी किसीसे ही बन सकता है। जिनोक्त मार्गका भी ऐसा एकांत सिद्धांत नहीं कि चाहे जिस अवस्थामें चाहे जिस मनुष्यको त्याग कर देना चाहिये । तथारूप सत्संग और सद्गुरुके योग होनेपर, उस आश्रयसे किसी पूर्वके संस्कारवाला अर्थात् विशेष वैराग्यवान पुरुष, गृहस्थाश्रमके ग्रहण करनेके पहिले ही त्याग कर दे, तो उसने योग्य किया है, ऐसा जिनसिद्धान्त प्रायः कहता है। क्योंकि अपूर्व साधनोंके प्राप्त होनेपर भी भोग आदिके भोगनेके विचारमें पड़ना, और उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करके, अपनेको प्राप्त आत्म-साधनको गुमा देने जैसा करना, और अपनेसे जो संतति होगी वह जो मनुष्यदेह पावेगी वह देह मोक्षके साधनरूप होगी, ऐसी मनोरथमात्र कल्पनामें पड़ना, यह मनुष्यभवकी उत्तमता दूर करके उसे पशुवत् करनेके ही समान है। ___ इन्द्रियों आदि जिसकी शांत नहीं हुई, और ज्ञानी-पुरुषकी दृष्टिमें जो अभी त्याग करने योग्य नहीं, ऐसे किसी मंद अथवा मोह-वैराग्यवान जीवको त्याग लेना प्रशस्त ही है, ऐसा जिनसिद्धांत कुछ एकांतरूपसे नहीं है । तथा प्रथमसे ही जिसे उत्तम संस्कारयुक्त वैराग्य न हो, वह पुरुष कदाचित् त्यागका परिणाममें लक्ष रखकर आश्रमपूर्वक आचरण करे, तो उसने एकांतसे भूल ही की है, और उसने त्याग ही किया होता तो उत्तम था, ऐसा भी जिनसिद्धांत नहीं है । केवल मोक्षके साधनका प्रसंग प्राप्त होनेपर उस अवसरको गुमा न देना चाहिये, यही जिनभगवान्का उपदेश है। ___ उत्तम संस्कारवाले पुरुष गृहस्थाश्रम किये बिना ही त्याग कर दें, तो उससे मनुष्यकी वृद्धि रुक जाय, और उससे मोक्ष-साधनके कारण भी रुक जॉय, यह विचार करना अल्प दृष्टिसे ही योग्य मालूम हो सकता है । किन्तु तथारूप त्याग-वैराग्यका योग प्राप्त होनेपर मनुष्य देहकी सफलता होनेके लिये उस योगका अप्रमत्तरूपसे, बिना विलंबके लाभ प्राप्त करना, यह विचार तो पूर्वापर अविरुद्ध और परमार्थ दृष्टिसे ही सिद्ध कहा जा सकता है । आयु सम्पूर्ण होगी, और अपने संतति हों तो वे जरूर मोक्षका साधन करेंगी यह निश्चय कर, तथा संतति होगी ही यह मानकर, और पीछेसे ऐसेका ऐसेही त्याग प्रकाशित होगा ऐसे भविष्यकी कल्पना कर, आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करनेको कौन विचारवान एकातरूपसे योग्य समझेगा ! अतएव अपने वैराग्यमें जिसे मंदता न हो और ज्ञानी-पुरुष जिसे त्याग करने योग्य समझते हों, उसे दूसरे मनोरथमात्र कारणोंके अथवा अनिश्चित कारणोंके विचारको छोड़कर, निश्चित और प्राप्त उत्तम कारणोंका आश्रय करना, यही उत्तम है, और यही मनुष्यभवकी सार्थकता है। बाकी वृद्धि आदिकी तो केवल कल्पनामात्र है । सच्चे मोक्षके मार्गका नाश कर, मात्र मनुष्यकी वृद्धि करनेकी कल्पना करने जैसा करें तो यह होना सरल है। तथा जिस तरह हालमें पुत्रोत्पत्ति के लिये इस एक पुरुषको रुकना. परे, वैसे ही उसे (होनेवाले
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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