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________________ ४२६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४६५ जगत् इस विचित्रताको प्राप्त नहो सके, क्योंकि यदि एक परमाणुमें पर्यायें न होंगी तो सभी परमाणुओंमें भी पर्यायें न होंगी । संयोग, वियोग, एकत्व, पृथक्त्व इत्यादि परमाणुकी पर्यायें हैं और वे सभी परमागुओंमें होती हैं । जिस तरह मेष-उन्मेषसे चक्षुका नाश नहीं होता, उसी तरह यदि इन भावोंका प्रति समय उसमें परिवर्तन होता रहे तो भी परमाणुका व्यय (नाश) नहीं होता । ४६५ मोहमयी (बम्बई), मंगसिर वदी ८ बुध.१९५१ यहाँसे निवृत्त होनेके बाद बहुत करके ववाणीआ, अर्थात् इस भवके जन्म-ग्राममें साधारण व्यावहारिक प्रसंगसे जानेकी ज़रूरत है । चित्तमें बहुत प्रकारोंसे उस प्रसंगके छट सकनेका विचार करनेसे उससे छूटा जा सकता है, यह भी संभव है । फिर भी बहुतसे जीवोंको अल्प कारणमें ही कभी अधिक संदेह होनेकी भी संभावना होती है, इसलिये अप्रतिबंध भावको विशेष दृढ़ करके वहाँ जानेका विचार है। वहाँ जानेपर, एक महीनेसे अधिक समय लग जाना संभव है । कदाचित दो महीने भी लग जॉय । उसके बाद फिर वहाँसे लौटकर इस क्षेत्रकी तरफ आना हो सकेगा, फिर भी जहाँतक हो सकेगा वहाँतक दो-एक महीनेका एकान्तमें निवृत्ति योग मिल सके तो वैसा करनेकी इच्छा है, और वह योग अप्रतिबंध भावसे हो सके इसका विचार कर रहा हूँ। सब व्यवहारोंसे निवृत्त हुए बिना चित्त ठिकाने नहीं बैठता, ऐसे अप्रतिबंध-असंगभावका चित्तमें बहुत कुछ विचार किया है इस कारण उसी प्रवाहमें रहना होता है। किन्तु उपार्जित प्रारब्धके निवृत्त होनेपर ही वैसा हो सकता है, इतना प्रतिबंध पूर्वकृत है-आत्माकी इच्छाका प्रतिबंध नहीं है। . सर्व सामान्य लोक व्यवहारकी निवृत्तिसंबंधी प्रसंगके विचारको किसी दूसरे प्रसंगपर बतानेके लिये रखकर इस क्षेत्रसे निवृत्त होनेकी विशेष इच्छा रहा करती है। किन्तु वह भी उदयके सामने नहीं बनता। फिर भी रात दिन यही चिन्तन रहा करता है, तो संभव है कि थोरे समय बाद यह हो जाय । इस क्षेत्रके प्रति कुछ भी द्वेष भाव नहीं है, तथापि संगका विशेष कारण है । प्रवृत्तिके प्रयोजन बिना यहाँ रहना आत्माके कुछ विशेष लाभका कारण नहीं है, ऐसा जानकर इस क्षेत्रसे निवृत्त होनेका विचार रहता है।। यद्यपि प्रवृत्ति भी निजबुद्धिसे किसी भी तरह प्रयोजनभूत नहीं लगती है, तो भी उदयानुसार काम करते रहनेके ज्ञानीके उपदेशको अंगीकार कर उदयको भोगनेके लिये हमें प्रवृत्ति-योग लेना पड़ा है। ज्ञानपूर्वक आत्मामें उत्पन्न हुआ यह निश्चय कभी भी नहीं बदलता है कि समस्त संग बड़ा भारी आस्रव है; चलते, देखते, प्रसंग करते एक समयमात्रमें यह निजभावको विस्मरण करा देता है; और यह बात प्रत्यक्ष देखनेमें भी आई है, आती है और आ सकती है। इस कारण रात दिन इस बड़े आस्रवरूप समस्त संगमें उदास भाव रहता है, और वह दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है, इसीलिये विशेष परिणामको प्राप्त कर सब संगोंसे निवृत्ति हो, ऐसी अपूर्व कारण-योगसे इच्छा रहा करती है। संभव है, यह पत्र प्रारंभसे व्यावहारिक स्वरूपमें लिखा गया मालूम हो, किन्तु इसमें यह बात बिलकुल भी नहीं है। असंगभावके विषयमें आत्म-भावनाका थोडासा विचारमात्र यहाँ लिखा है। .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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