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________________ पत्र ४६४] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष ४२५ दुविधाके द्वारा किसी कर्मकी निवृत्तिकी इच्छा करते हैं तो वह नहीं होती, और आर्तध्यान होकर ज्ञानकि मार्गपर पग रक्खा जाता है। ४६४ बम्बई, मंगसिर सुदी ३ शुक्र. १९५१ प्रश्नः--उसका मध्य नहीं, अर्ध नहीं, और वह अछेद्य तथा अभेद्य है, इत्यादि रूपसे श्रीजिनभगवान्ने परमाणुकी व्याख्या कही है; तो इसमें अनन्त पर्यायें किस तरह घट सकती हैं ! अथवा पर्याय यह एक परमाणुका ही दूसरा नाम है या और कुछ ! इस प्रश्नसूचक पत्र मिला था। उसका समाधान इस प्रकार है:- उत्तरः- प्रत्येक पदार्थकी अनन्त पर्यायें (अवस्थाएँ) होती हैं । अनन्त पर्यायरहित कोई पदार्थ हो ही नहीं सकता—ऐसा श्रीजिनभगवान्का अभिमत है, और वह यथार्थ ही मालूम होता है । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ समय समयमें अवस्थान्तरको प्राप्त करता हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है । जिस तरह आत्मामें प्रतिक्षण संकल्प-विकल्प परिणतियोंके कारण अवस्थान्तर हुआ करती हैं, उसी तरह परमाणुमें भी वर्ण, गंध, रस, रूप अवस्थान्तरको प्राप्त होते रहते हैं । ऐसी अवस्थान्तरोंकी प्राप्ति होनेसे उस परमाणुके अनन्त भाग हुए, ऐसा कहना ठीक नहीं । क्योंकि वह परमाणु अपने एकप्रदेश-क्षेत्र-अवगाहित्वको छोड़े बिना ही उन अवस्थान्तरोंको प्राप्त होता है । एकप्रदेश-क्षेत्र-अवगाहित्वके अनन्त भाग हो नहीं सकते । एक ही समुद्रमें जिस तरह तरंगें उठती रहती हैं और वे तरंगें उसीमें समा जाती हैं; जुदी तरंगोंके कारण उस समुद्रकी जुदी जुदी अवस्थाएँ होनेपर भी जिस तरह समुद्र अपने अवगाहक क्षेत्रको नहीं छोड़ता, और न कहीं उस समुद्रके अनन्त भिन्न भिन्न हिस्से ही होते हैं, मात्र अपने ही स्वरूपमें वह क्रीड़ा करता है; तरंगित होना यह समुद्रकी एक परिणति है; यदि जल शान्त हो तो शान्तता उसकी एक परिणति है कोई न कोई परिणति उसमें होनी ज़रूर चाहिए । उसी तरह वर्ण, गंधादि परिणाम परमाणुमें बदलते रहते हैं, किन्तु उस परमाणुके कहीं टुकड़े हो जानेका प्रसंग नहीं आता; वे मात्र अवस्थान्तरको प्राप्त होते रहते हैं । जैसे सोना कुंडलाकारको छोड़कर मुकुटाकार होता है, उसी तरह परमाणुकी भी एक समयकी अवस्थासे दूसरे समयकी अवस्थामें कुछ अन्तर हुआ करता है। जैसे सोना दोनों पर्यायोंको धारण करनेपर भी सोना ही है, वैसे ही परमाणु भी परमाणु ही रहता है । एक पुरुष ( जीव ) बालकपन छोड़कर जवान होता है, जवानी छोड़कर वृद्ध होता है, किन्तु पुरुष वही रहता है। इसी तरह परमाणु भी पर्यायोंको प्राप्त होता है। आकाश भी अनन्त पर्यायी है, और सिद्ध भी अनन्त पर्यायी हैं ऐसा जिनभगवान्का अभिप्राय है। इसमें विरोध नहीं मालूम होता । वह बहुत कुछ मेरी समझमें आया है, किन्तु विशेषरूपमें नहीं लिखे जा सकनेके कारण, जिससे तुमको वह बात विचार करनेमें कारण हो, इस तरह ऊपर ऊपर से लिखी ह । ऑखमें मेष-उन्मेष जो अवस्थायें हैं, ये उसकी पर्यायें हैं। दीपककी हलन चलन स्थिति उसकी पर्याय है। आत्माकी संकल्प-विकल्प दशा अथवा ज्ञान-परिणति यह उसकी पर्याय है। उसी तरहसे वर्ण गंध परिणमनको प्राप्त हों, यह परमाणुकी पर्याय है । यदि इस तरहका परिणमन न हो तो यह ५४
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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