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________________ ३६८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४०६ ही होती हैं-निरर्थक नहीं होती। जो कुछ भी किया जाता है उसका फल अवश्य भोगनेमें आता है, यह प्रत्यक्ष अनुभव है। जिस तरह विष खानेसे विषका फल, मिश्री खानेसे मिश्रीका फल, अग्निके स्पर्श करनेसे अग्नि-स्पर्शका फल, हिमके स्पर्श करनेसे हिम-स्पर्शका फल मिले बिना नहीं रहता, उसी तरह कषाय आदि अथवा अकषाय आदि जिस किसी परिणामसे भी आत्मा प्रवृत्ति करती है, उसका फल भी मिलना योग्य ही है, और वह मिलता है । उस क्रियाका कर्ता होनेसे आत्मा भोक्ता है । पाँचवाँ पदः-'मोक्षपद है। जिस अनुपचरित-व्यवहारसे जीवके कर्मका कर्तृत्व निरूपण किया और कर्तृत्व होनेसे भोक्तृत्व निरूपण किया, वह कर्म दूर भी अवश्य होता है। क्योंकि प्रत्यक्ष कषाय आदिकी तीव्रता होनेपर भी उसके अनभ्याससे-अपरिचयसे—उसके उपशम करनेसे-उसकी मंदता दिखाई देती है-वह क्षीण होने योग्य मालूम होता है-क्षीण हो सकता है । उस सब बंध-भावके क्षीण हो सकने योग्य होनेसे उससे रहित जो शुद्ध आत्मभाव है, उसरूप मोक्षपद है। छहा पदः- उस मोक्षका उपाय है' । यदि कचित् ऐसा हो कि हमेशा कौका बंध ही बंध हुआ करे, तो उसकी निवृत्ति कभी भी नहीं हो सकती। परन्तु कर्मबंधसे विपरीत स्वभाववाले ज्ञान, दर्शन, समाधि, वैराग्य, भक्ति आदि साधन प्रत्यक्ष हैं; जिस साधनके बलसे कर्म-बंध शिथिल होता है-उपशम होता है-क्षीण होता है। इसलिये वे ज्ञान, दर्शन, संयम आदि मोक्ष-पदके उपाय हैं। श्रीज्ञानी पुरुषोंद्वारा सम्यग्दर्शनके मुख्य निवासभूत कहे हुए इन छह पदोंको यहाँ संक्षेपमें कहा है। समीप-मुक्तिगामी जीवको स्वाभाविक विचारमें ये पद प्रामाणिक होने योग्य हैं—परम निश्चयरूप जानने योग्य हैं, उसकी आत्मामें उनका सम्पूर्णरूपसे विस्तारसहित विवेक होना योग्य है । ये छह पद संदेहरहित हैं, ऐसा परम पुरुषने निरूपण किया है । इन छह पदोंका विवेक जीवको निजस्वरूप समझनेके लिये कहा है । अनादि स्वप्न-दशाके कारण उत्पन्न हुए जीवके अहंभाव-ममत्वभावको दूर करनेके लिये ज्ञानी-पुरुषोंने इन छह पदोंकी देशना प्रकाशित की है। एक केवल अपना ही स्वरूप उस स्वप्नदशासे रहित है, यदि जीव ऐसा विचार करे तो वह सहजमात्रमें जागृत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त हो; सम्यग्दर्शनको प्राप्त होकर निज स्वभावरूप मोक्षको प्राप्त करे । उसे किसी विनाशी, अशुद्ध और अन्यभावमें हर्ष, शोक और संयोग उत्पन्न न हो, उस विचारसे निज स्वरूपमें ही निरन्तर शुद्धता, सम्पूर्णता, अविनाशीपना, अत्यंत आनन्दपना उसके अनुभवमें आता है। समस्त विभाव पर्यायोंमें केवल अपने ही अध्याससे एकता हुई है, उससे अपनी सर्वथा भिन्नता ही है, यह उसे स्पष्ट--प्रत्यक्षअत्यंत प्रत्यक्ष-अपरोक्ष अनुभव होता है । विनाशी अथवा अन्य पदार्थके संयोगमें उसे इष्ट-अनिष्टभाव प्राप्त नहीं होता । जन्म, जरा, मरण, रोग आदिकी बाधारहित, सम्पूर्ण माहात्म्यके स्थान ऐसे निज-स्वरूपको जानकर–अनुभव करके.-वह कृतार्थ होता है । जिन जिन पुरुषोंको इन छह पदोंके प्रमाणभूत ऐसे परम पुरुषके वचनसे आत्माका निश्चय हुआ है, उन सब पुरुषोंने सर्व स्वरूपको पा लिया है वे आधि, व्याधि, उपाधि और सर्वसंगसे रहित हो गये हैं, होते हैं, और भविष्यमें भी वैसे ही होंगे। जिन सत्पुरुषोंने जन्म, जरा, और मरणका नाश करनेवाला, निज स्वरूपमें सहज-अवस्थान होनेका उपदेश दिया है, उन सत्पुरुषोंको अत्यंत भक्तिसे नमस्कार है। उनकी निष्कारण करुणासे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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