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________________ पत्र ४०५, ४०६] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ३६७ ४०५ बम्बई, फाल्गुन १९५० मुमुक्षु जीवको इस कालमें संसारकी प्रतिकूल दशाओंका प्राप्त होना, वह उसे संसारसे पार होनेके बराबर है । अनंतकालसे अभ्यसित इस संसारके स्पष्ट विचार करनेका समय प्रतिकूल समागममें अधिक होता है, यह बात निश्चय करनी योग्य है । यदि प्रतिकूल समागम समतापूर्वक सहन किया जाय तो वह जीवको निर्वाणकी समीपताका साधन है। ____ व्यावहारिक प्रसंगोंकी नित्य चित्र-विचित्रता है। उसकी ऐसी स्थिति है कि उसमें केवल कल्पनासे ही सुख और कल्पनासे ही दुःख है । अनुकूल कल्पनासे वह अनुकूल भासित होता है, प्रतिकूल कल्पनासे वह प्रतिकूल भासित होता है; और ज्ञानी-पुरुषोंने ये दोनों ही कल्पनायें करनेकी मना की है । विचारवानको शोक करना ठीक नहीं-ऐसा श्रीतीर्थंकर कहते थे। ४०६ बम्बई, फाल्गुन १९५० अनन्य शरणके देनेवाले श्रीसद्गुरुदेवको अत्यंत भाक्तसे नमस्कार हो. जिन्होंने शुद्ध आत्मस्वरूपको पा लिया है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषोंने नीचे कहे हुए छह पदोंको सम्यग्दर्शनके निवासका सर्वोत्कृष्ट स्थानक कहा है: प्रथम पदः- आत्मा है। जैसे घट, पट आदि पदार्थ हैं वैसे ही आत्मा भी है। अमुक गुणोंके होनेके कारण जैसे घट, पट आदिके होनेका प्रमाण मिलता है, वैसे ही जिसमें स्व-पर-प्रकाशक चैतन्य सत्ताका प्रत्यक्ष गुण मौजूद है, ऐसी आत्माके होनेका भी प्रमाण मिलता है। दूसरा पद:-'आत्मा नित्य है ' । घट, पट आदि पदार्थ अमुक कालमें ही रहते हैं । आत्मा त्रिकालवी है । घट, पट आदि संयोगजन्य पदार्थ हैं । आत्मा स्वाभाविक पदार्थ है, क्योंकि उसकी उत्पत्तिके लिये कोई भी संयोग अनुभवमें नहीं आता । किसी भी संयोगी द्रव्यसे चेतन-सत्ता प्रगट होने योग्य नहीं है, इसलिये वह अनुत्पन्न है । वह असंयोगी होनेसे अविनाशी है, क्योंकि जिसकी किसी संयोगसे उत्पत्ति नहीं होती, उसका किसीमें नाश भी नहीं होता। तीसरा पदः-'आत्मा कर्ता है । सब पदार्थ अर्थ-क्रियासे संपन्न हैं। सभी पदार्थोंमें कुछ न कुछ क्रियासहित परिणाम देखनेमें आता है । आत्मा भी किया-संपन्न है। क्रिया-संपन्न होने के कारण वह कर्ता है। श्रीजिनभगवान्ने इस कर्त्तापनेका तीन प्रकारसे विवेचन किया है:-परमार्थसे आत्मा खभाव-परिणतिसे निजस्वरूपका कर्ता है । अनुपचरित ( अनुभवमें आने योग्य-विशेष संबंधसहित ) व्यवहारसे आत्मा द्रव्य-कर्मका कर्ता है । उपचारसे आत्मा घर नगर आदिका कर्ता है। चौथा पदः-'आत्मा भोक्ता है'। जो जो कुछ क्रियायें होती हैं, वे सब किसी प्रयोजनपूर्वक
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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