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२८२ भीमद् राजचन्द्र
[पत्र २७२, २७३ जिसे यथार्थ आत्मभाव समझमें आया है, और वह उसे निश्चल रहता है, उसे ही यह समाधि प्राप्त होती है।
हम सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागताको मानते हैं; और ऐसा ही अनुभव है।
२७२ वम्बई, माघ वदी ९ सोम. १९४८ जबहीते चेतन विभावसौं उलटि आपु, समै पाइ अपनी सुभाव गहि लीनी है। तबहीते जो जो लेन जोग सो सो सब लीनी है, जो जो त्यागजोग सो सो सब छोड़ि दीनी है। लैबेकौ न रही गैर, त्यागिविकौं नाहीं और, बाकी कहा उबयौँ जु, कारजु नवीनी है। संग त्यागि, अंग त्यागि, वचन तरंग त्यागि, मन त्यागि, बुद्धि त्यागि, आपा सुद्ध कीनौ है ।
कैसी अद्भुत दशा है ?
२७३ बम्बई, माघ वदी १० भौम. १९४८ जिस समय आत्मरूपसे केवल जागृत अवस्था रहती है, अर्थात् आत्मा अपने स्वरूपमें सर्वथा जागृत हो जाती है, उस समय उसे 'केवलज्ञान' होता है, ऐसा कहना योग्य है, ऐसा श्रीतीर्थकरका आशय है।
जिस पदार्थको तीर्थकरने " आत्मा" कहा है, उसी पदार्थकी उसी स्वरूपसे प्रतीति हो-उसी परिणामसे आत्मा साक्षात् भासित हो-तब उसे 'परमार्थ सम्यक्त्व' है, ऐसा श्रीतीर्थकरका अभिप्राय है ।
जिसे ऐसा स्वरूप भासित हुआ है, ऐसे पुरुषोंमें जिसे निष्काम श्रद्धा है, उस पुरुषको 'बोजरुचि सम्यक्त्व' है।
जिस जीवमें ऐसे गुण हों कि जिससे ऐसे पुरुषकी बाधारहित निष्काम भक्ति प्राप्त हो, वह जीव 'मार्गानुसारी' है, ऐसा जिनभगवान् कहते हैं।
हमारा देहके प्रति यदि कुछ भी अभिप्राय है तो वह मात्र एक आत्मार्थके लिये ही है, दूसरे प्रयोजनके लिये नहीं । यदि दूसरे किसी भी पदार्थके लिये अभिप्राय हो तो वह अभिप्राय पदार्थके लिये नहीं, परन्तु आत्मार्थके लिये ही है। वह आत्मार्थ उस पदार्थकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हो, ऐसा हमें मालूम नहीं होता । “आत्मत्व" इस ध्वनिके सिवाय कोई दूसरी ध्वनि किसी भी पदार्थके ग्रहण अथवा त्याग करनेमें स्मरण करने योग्य नहीं । निरन्तर आत्मत्व जाने बिना-उस स्थितिके बिना अन्य सब कुछ केशरूप ही है।