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________________ पत्र २७१] विविध पत्र आदि संग्रह-२५ वाँ वर्ष २८१ जिस दर्शनमें बंध, मोक्षकी यथार्थ व्यवस्था यथार्थरूपसे कही गई है, वह दर्शन निकट मुक्तिका कारण है; और इस यथार्थ व्यवस्थाको कहने योग्य हम यदि किसीको विशेषरूपसे मानते हैं तो वह श्रीतीर्थकरदेव ही हैं। और इन तीर्थंकरदेवका जो अंतर आशय है, वह प्रायः मुख्यरूपसे यदि आजकल किसीमें, इस क्षेत्रमें हो, तो वह हम ही होंगे, ऐसा हमें दृढ़रूपसे भासता है । क्योंकि हमारा जो अनुभव-ज्ञान है उसका फल वीतरागता है, और वीतरागका कहा हुआ जो श्रुतज्ञान है, वह भी उसी परिणामका कारण मालूम होता है। इस कारण हम उसके सच्चे वास्तविक अनुयायी हैं—सच्चे अनुयायी हैं। किसी भी प्रकारसे वन और घर ये दोनों ही हमारे लिये तो समान हैं, तथापि पूर्ण वीतराग-भावके लिये वनमें हमें रहना अधिक रुचिकर लगता है; सुखकी इच्छा नहीं है, परन्तु वीतरागताकी इच्छा है । जगत्के कल्याणके लिये पुरुषार्थ करनेके विषयमें लिखा, तो उस पुरुषार्थक करनेकी इच्छा किसी प्रकारसे रहती भी है, तथापि उदयके अनुसार चलनेका इस आत्माका स्वभाव जैसा हो गया है, और वैसा उदय-काल हालमें समीपमें मालूम नहीं होता; फिर उसकी उदी करके वैसा काल ले आने जैसी हमारी दशा नहीं है। “ भिक्षा माँगकर गुजर चला लेंगे, परन्तु खेदखिन्न न होंगे; ज्ञानके अनन्त आनन्दके सामने यह दुःख तृणमात्र है"-इस आशयका जो वचन लिखा है, उस वचनको हमारा नमस्कार हो । ऐसा वचन वास्तविक योग्यताके बिना निकलना संभव नहीं है। (२) " जीव पौद्गलिक पदार्थ नहीं है, पुद्गल नहीं है, और उसका पुद्गल आधार नहीं है, और वह पुद्गलके रंगवाला भी नहीं है; अपनी स्वरूप-सत्ताके सिवाय जो कुछ अन्य है, उसका वह स्वामी नहीं है, क्योंकि परका ऐश्वर्य स्व-रूपमें नहीं होता; वस्तुत्वकी दृष्टिसे देखनेपर वह कभी भी परसंगी भी नहीं है"-इस तरह "जीव नवी पुग्गली " आदि पदका सामान्य अर्थ है। मुखदुखरूप करमफल जाणो, निश्चय एक आनंदो रे, , चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे। (वासुपूज्यस्तवन-आनंदघन ) यहाँ समाधि है । पूर्णज्ञानसे युक्त समाधि बारंबार याद आया करती है। 'परमसत् ' का ध्यान करते हैं । उदासी रहती है। २७१ बम्बई, माघ वदी ४, बुध. १९४८ जहाँ चारों ओर उपाधिकी ज्वाला प्रज्वलित हो रही हो, ऐसे प्रसंगमें समाधि रहनी परम दुष्कर है और यह बात तो परमज्ञानी बिना होनी अत्यन्त ही कठिन है। हमें भी आश्चर्य होता है, तथापि प्रायः ऐसी ही प्रवृत्ति होती है, ऐसा अनुभव है। दुःख और सुख ये दोनों कर्मके फलरूप जानो । निमयसे तो एक आनन्द ही है। जिनेश्वरमगवान् कहते है कि आत्मा कभी भी चेतन-भावको नहीं छोड़ती। ३६
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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