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________________ ૨૮ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २६७ कर दे; और ऐसा तो कभी भी हो नहीं सकता कि वस्तु अपने स्वरूपका ही सर्वथा त्याग कर दे। जब ऐसा नहीं होता तो दो द्रव्य सर्वथा एक परिणामको प्राप्त हुए बिना एक भी क्रिया कहाँसे कर सकते हैं ! अर्थात् कभी नहीं कर सकते। दोइ करतूति एक दर्व न करतु है इसी तरह एक द्रव्य दो क्रियाओंको भी धारण नहीं करता; क्योंकि एक समयमें दो उपयोग नहीं हो सकते, इसलिये जीव पुदगल एक खेत-अवगाही दोउ जीव और पुद्गलने कदाचित् एक क्षेत्रको रोक रक्खा हो तो भी अपने अपने रूप कोउ न टरतु है कोई अपने अपने स्वरूपके सिवाय दूसरे परिणामको प्राप्त नहीं होता, और इसी कारण ऐसा कहा गया है कि ___ जड़ परिनामनिको करता है पुदगल देह आदिसे जो परिणाम होते हैं, उनका कर्ता पुद्गल है; क्योंकि वे देह आदि जड़ हैं; और जड़ परिणाम तो पुद्गलमें ही होता है । जब ऐसा ही है तो फिर जीव भी जीव-स्वरूपमें ही रहता है, इसमें अब किसी दूसरे प्रमाणकी भी आवश्यकता नहीं; ऐसा मानकर कहते हैं कि चिदानंद चेतन सुभाउ आचरतु है काव्यकर्ताके कहनेका अभिप्राय यह है कि यदि तुम इस तरह वस्तुस्थितिको समझो तो ही जड़संबंधी निज-स्वरूपभाव मिट सकता है, और तो ही अपने स्वरूपका तिरोभाव प्रगट हो सकता है। विचार करो, स्थिति भी ऐसी ही है । बहुत गहन बातको यहाँ संक्षेपमें लिखा है । ( यद्यपि ) जिसको यथार्थ बोध है उसे तो यह आसानीसे ही समझमें आ जायगी। इस बातपर कईबार मनन करनेसे बहुत कुछ बोध हो सकेगा। (२) चित्त प्रायः करके वनमें रहता है, आत्मा तो प्रायः मुक्तस्वरूप जैसी लगती है । वीतरागता विशेष है; बेगारकी तरह प्रवृत्ति करते हैं। दूसरोंका अनुसरण भी करते हैं । जगत्से बहुत उदास हो गये हैं। वस्तीसे तंग आ गये हैं। दशा किसीसे भी कह नहीं सकते; कहें भी तो वैसा सत्संग नहीं है। मनको जैसा चाहें वैसा फिरा सकते हैं। इसीलिये प्रवृत्तिमें रह सके हैं। किसी प्रकारसे रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो सकने जैसी दशा है, और ऐसी ही बनी रहती है । लोक-परिचय अच्छा नहीं लगता; जगत्में साता नहीं है, तथापि किये हुए कमौकी निर्जरा करनी है इसलिये निरुपाय हैं। यथार्थ बोधस्वरूपका यथायोग्य. २६७ बम्बई, पौष वदी १४ गुरु. १९४८ . जैसे बने वैसे सद्विचारका परिचय करनेके लिये ( उपाधिमें लगे रहनेसे ) जिससे योग्य रीतिसे प्रवृति न होती हो, उस बातको ज्ञानियोंने लक्षमें रखने योग्य बताई है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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