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________________ २६० श्रीमद् राजचन्द्र [ २२४ श्रीसद्गुरुभक्तिरहस्य जो सेवाके प्रतिकूल बंधन है, उसका मैंने त्याग नहीं किया है; देह और इन्द्रियाँ मानती नहीं हैं, और बाह्य वस्तुपर राग किया करती हैं ॥ १० ॥ तेरा वियोग स्फुरित नहीं होता, वचन और नयनका कोई यम-नियम नहीं, तथा न भोगे हुए पदार्थोसे और घर आदिसे उदासीन भाव नहीं है ॥ ११ ॥ न मैं अहंभावसे रहित हूँ, न मैंने अपने धर्मका ही संचय किया है, और न मुझमें निर्मलभावसे अन्य धर्मोके प्रति कोई निवृत्ति ही है ॥ १२ ॥ इस प्रकार मैं अनंत प्रकारसे साधनोंसे रहित हूँ। मुझमें एक भी तो सद्गुण नहीं; मैं अपना मुँह कैसे बताऊँ ॥ १३ ॥ हे दीनबंधु दीनानाथ ! आप केवल करुणाकी मूर्ति हो, और मैं परम पापी अनाथ हूँ। हे प्रभुजी! मेरा हाथ पकड़ो ॥१४॥ हे भगवन् ! मैं बिना ज्ञानके अनंत कालसे भटका फिरा; मैंने संतगुरुकी सेवा नहीं की; और अभिमानका त्याग नहीं किया ॥१५॥ संतके चरणोंके आश्रयके बिना मैंने अनेक साधन जुटाये, परन्तु उनसे पार नहीं पाई, और विवेकका अंश मात्र भी उनसे उदित नहीं हुआ ॥१६॥ जितने भर साधन थे सब बंधन हो उठे, और कोई उपाय नहीं रहा। जब सत् साधन ही नहीं समझा, तो फिर बंधन कैसे दूर हो सकता है ? ॥१७॥ न प्रभु प्रभुकी लौ ही लगी, और न सद्गुरुके पैरोंमें ही पड़े जब अपने दोष ही नहीं देखे तो फिर किस उपायसे पार पा सकते हैं ! ॥ १८॥ मैं संपूर्ण जगत्में अधमसे अधम और पतितसे पतित हूँ, इस निश्चयपर पहुँचे बिना साधन भी क्या करेंगे ! ॥ १९॥ __ हे भगवन् ! मैं फिर फिरसे तेरे चरण-कमलोंमें पड़ पड़कर यही माँगता हूँ कि तू ही सद्गुरु संत है, ऐसी मुझमें दृढ़ता उत्पन्न कर ॥२०॥ सेवाने प्रतिकूळ जे, ते बंधन नथी त्याग; देहेन्द्रिय माने नहिं, करे बालपर राग ॥ १०॥ तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयन यम नाहिं नहिं उदास अनभक्त थी, तेम गृहादिक मांहि ॥ ११ ॥ अहंभावथा रहित नहि, स्वधर्मसंचय नाहिं; नयी निवृत्ति निर्मळपणे, अन्य धर्मनी काई ॥ १२ ॥ एम अनन्त प्रकारथी, साधन रहित हुंय; नहिं एक सगुण पण, मुख बताई शंय ॥ १३ ॥ केवल करुणामूर्ति छो, दीनबंधु दीननाथ; पापी परम अनाथ छडं, गृहो प्रभुजी हाथ ॥ १४ ॥ अनंत काळयी आयव्यो, विना भान भगवान सेव्या नहिं गुरु संतने, मूक्युं नहिं अभिमान ॥ १५ ॥ संतचरण-आश्रयविना, साधन को अनेक; पार न तेथी पामियो, उग्यो न अंश विवेक ॥ १६ ॥ सहु साधन बंधन थयां, रखो न कोई उपाय; सत् साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय १ ॥ १७ ॥ प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पच्यो न सद्रू पाय; दीठा नहिं निज दोष तो, तरिये कोण उपाय ॥ १८ ॥ अधमाधम अधिको पतित, सकळ जगत्मा हुंय; ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शृंय ॥१९॥ पडी पडी तुज पद पंकजे, फरिफरी मागु एज; सद्गुरु संत स्वरूप तुज, ए दृढता करि देज ॥२०॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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