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________________ २३५ पत्र १८०] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष मिथ्यात्व ( संदेह ) मंद नहीं होते; इसलिये हमें जीवके कल्याणका पुनः पुनः विचार करना चाहिये; और उसका विचार करनेपर हम कुछ न कुछ फल पाये बिना न रहेंगे। हम लोग सब कुछ जाननेका तो प्रयत्न करते हैं, परन्तु हमारा 'संदेह ' कैसे दूर हो, यह जाननेका प्रयत्न नहीं करते। और जबतक ऐसा न करेंगे तबतक सन्देह कैसे जा सकता है; और जबतक सन्देह है, तबतक ज्ञान भी नहीं हो सकता; इसलिये सन्देह हटानेका प्रयत्न करना चाहिये । वह संदेह यह है कि जीव भव्य है या अभव्य ! मिथ्यादृष्टि है या सम्यग्दृष्टि ? आसानीसे बोध पानेवाला है या कठिनतासे बोध पानेवाला ? निकट संसारी है या अधिक संसारी? जिससे हमें ये सब बातें मालूम हो सकें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकारकी ज्ञान-कथाका उनसे प्रसंग रखना योग्य है । परमार्थके ऊपर प्रीति होनेमें सत्संग ही सर्वोत्कृष्ट और अनुपम साधन है; परन्तु इस कालमें वैसा संयोग मिलना बहुत ही कठिन है; इसलिये जीवको इस विकटतामें रहकर पार पानेमें विकट पुरुषार्थ करना योग्य है; और वह यह कि " अनादिकालसे जितना जाना है उतना सबका सब अज्ञान ही है। उस सबका विस्मरण करना चाहिये ।" सत' सतू ही है, सरल है, और सुगम है, उसकी सर्वत्र प्राप्ति हो सकती है; परन्तु 'सत्को' बतानेवाला कोई ' सत् ' चाहिये । नय अनंत हैं । प्रत्येक पदार्थमें अनन्त गुण-धर्म-हैं; उनमें अनंत नय परिणमते हैं; इसलिये एक अथवा दो चार नयोंद्वारा वस्तुका सम्पूर्ण वर्णन कर देना संभव नहीं है। इसलिये नय आदिमें समतावान ही रहना चाहिये । ज्ञानियोंकी वाणी ' नय ' में उदासीन रहती है। उस वाणीको नमस्कार हो। . १८० बम्बई, माघ वदी १३, १९४७ नय अनन्त हैं। प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणोंसे, और अनन्त धर्मोसे युक्त है। एक एक गुण और एक एक धर्ममें अनंत नयोंका परिणमन होता रहता है; इसलिये इस मार्गसे पदार्थका निर्णय करना चाहें तो नहीं हो सकता, इसका कोई दूसरा ही मार्ग होना चाहिये; बहुत करके इस बातको ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं; और वे नय आदि मार्गके प्रति उदासीन रहते हैं; इससे किसी नयका एकांत खंडन भी नहीं होता, और न किसी नयका एकान्त मण्डन ही होता है । जितनी जिसकी योग्यता है उस नयकी उतनी सत्ता ज्ञानी पुरुषोंको मान्य होती है। जिन्हें मार्ग प्राप्त नहीं हुआ ऐसे मनुष्य 'नय' का आग्रह करते हैं; और उससे विषम फलकी प्राप्ति होती है । जहाँ किसी भी नयका विरोध नहीं होता ऐसे हानियोंके वचनोंको हम नमस्कार करते हैं । जिसको ज्ञानीके मार्गकी इच्छा हो ऐसे प्राणीको तो नय आदिमें उदासीन रहनेका ही अभ्यास करना चाहिये किसी भी नयमें आग्रह नहीं करना चाहिये। और किसी भी प्राणीको इस मार्गसे कष्ट न देना चाहिये, और जिसका यह आग्रह दूर हो गया है, वह किसी भी तरहसे प्राणियोंको क्लेश पहुँचानेकी इच्छा नहीं करता।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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