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________________ २३४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १७७, १७८, १७९ जगत् भी, जहाँ मायापूर्वक ही परमात्माका दर्शन है, कुछ विचारकर पग रखने जैसा लगता है। इसीलिये हम असंगताकी इच्छा करते हैं, अथवा आपके संगकी इच्छा करते हैं, यह योग्य ही है। १७७ बम्बई, माघ वदी १३ रवि. १९४७ गाढ़ परिचयके लिये आपने कुछ नहीं लिखा, सो लिखें। पारमार्थिक विषयमें हालमें मौन रहनेका कारण परमात्माकी इच्छा है। जबतक हम असंग न होंगे, और उसके बाद उसकी इच्छा न होगी, तबतक हम प्रगट रीतिसे मार्गोपदेश न करेंगे। और सब महात्माओंका ऐसा ही रिवाज है; हम तो केवल दीन हैं । भागवतवाली बात हमने आत्मज्ञानसे जानी है। १७८ बम्बई, माघ वदी १३ रवि. १९४७ आपको मेरे प्रति परम उल्लास होता है, और उस विषयमें आप बारम्बार प्रसन्नता प्रगट करते हैं; परन्तु हमारी प्रसन्नता अभीतक अपने ऊपर नहीं होती; क्योंकि जैसी चाहिये वैसी असंगदशासे नहीं रहा जाता; और मिथ्या प्रतिबंध वास रहता है। यद्यपि परमार्थके लिये परिपूर्ण इच्छा है, परन्तु अभी उसमें जबतक ईश्वरेच्छाकी सम्मति नहीं हुई तबतक मेरे विषयमें मन ही मनमें समझ रखना; और चाहे जैसे दूसरे मुमुक्षुओंको भी मेरा नाम लेकर कुछ न कहना । अभी हालमें हमें ऐसी दशासे ही रहना प्रिय है। १७९ बम्बई, माघ वदी १३, १९४७ यद्यपि किसी भी क्रियाका भंग नहीं किया जाता तो भी उनको वैसा लगता है, इसका कोई कारण होना चाहिये, उस कारणको दूर करना यह कल्याणरूप है। परिणाममें 'सत्' को प्राप्त करानेवाली और प्रारंभमें 'सत्' की हेतुभूत ऐसी उनकी रुचिको प्रसन्नता देनेवाली वैराग्य-कथाका प्रसंग पाकर उनके साथ परिचय करोगे, तो उनके समागमसे भी कल्याण ही वृद्धिंगत होगा, और पहिला कारण भी दूर हो जायगा। जिसमें पृथिवी आदिका विस्तारसे विचार किया है, ऐसे वचनोंकी अपेक्षा ' वैतालिक ' अध्ययन जैसे वचन वैराग्यकी वृद्धि करते हैं, और उसमें दूसरे मतवाले प्राणीको भी अरुचि नहीं होती। जो साधु तुम्हारा अनुकरण करते हों, उन्हें समय समयपर कहते रहना कि "धर्म उसीको कहा जा सकता है जो धर्म होकर परिणमे; ज्ञान उसीको कहा जा सकता है कि जो ज्ञान होकर परिणमे; यदि तुम मेरे कहनेका यह हेतु न समझो कि हम जो सब क्रियायें और वाचन इत्यादि करते हैं, वे मिथ्या हैं, तो मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ" । इस प्रकार कहकर उन्हें यह कहना चाहिये कि यह जो कुछ हम करते हैं, उसमें कोई ऐसी बात बाकी रह जाती है कि जिससे 'धर्म और ज्ञान ' हमें अपने अपने रूपमें नहीं परिणमाते, तथा कषाय और
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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