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________________ २२२ श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र १५४ अनेक महापुरुषोंने इस कालको कठिन कहा है; यह बात निस्सन्देह सत्य है; क्योंकि भक्ति और सत्संग विदेश चले गये हैं, अर्थात् संप्रदायमें नहीं रहे, और इनके मिले बिना जीवका छुटकारा नहीं। इस कालमें इनका मिलना दुःषम हो गया है, इसीलिये इस कालको दुःषम कहा है, यह बात योग्य ही है । दुःषमके विषयमें कमसे कम लिखनेकी इच्छा होती है, परन्तु लिखने अथवा बोलनेकी अधिक इच्छा नहीं रही । चेष्टाके ऊपरसे ही समझमें आ जाया करे ऐसी निश्चल इच्छा है। ॐ श्रीसद्गुरुचरणाय नमः १५४ बम्बई, कार्तिक वदी ९ शुक्र. १९४७ मुनि........के संबंधमें आपका लिखना यथार्थ है । भव-स्थितिकी परिपक्कता हुए बिना, दीनबंधुकी कृपा बिना, और संत-चरणकी सेवा बिना तीनों कालमें भी मार्गका मिलना कठिन ही है। जीवके संसार-परिभ्रमणके जो जो कारण हैं, उनमें मुख्य सबसे बड़े कारण ये हैं कि स्वयं जिस ज्ञानके विषयमें शंकित हैं, उसी ज्ञानका उपदेश करना; प्रगटरूपमें उसी मार्गकी रक्षा करनी; तथा उसके लिये हृदयमें चल-विचल भाव होनेपर भी अपने श्रद्धालुओंको उसी मार्गके यथार्थ होनेका उपदेश देना । इसी तरह यदि आप उस मुनिके संबंधमें विचार करेंगे तो यह बात ठीक ठीक लागू होगी। जिसका जीव स्वयं ही शंकामें डुबकियाँ खाता हो, फिर भी यदि वह निःशंक मार्गके उपदेश करनेका दंभ रखकर समस्त जीवन बिता दे, तो यह उसके लिये परम शोचनीय है । मुनिके संबंधमें यहाँपर कुछ कठोर भाषामें लिखा गया है, ऐसा मालूम होता है; फिर भी यहाँ वैसा अभिप्राय बिलकुल भी नहीं है । जैसा है वैसाका वैसा ही करुणाई चित्तसे लिखा है। इसी तरहसे दूसरे अनंत जीव पूर्वकालमें भटके हैं, वर्तमानकालमें भटक रहे हैं, और भविष्यकालमें भी भटकेंगे। जो छूटनेके लिये ही जीता है, वह बंधनमें नहीं आता, यह वाक्य निःसंदेह अनुभयपूर्ण है । बंधनका त्याग करनेपर ही छुटकारा होता है, ऐसा समझनेपर भी उसी बंधनकी वृद्धि करते रहना, उसीमें अपना महत्त्व स्थापित करना, और पूज्यताका प्रतिपादन करना; यह जीवको बहुत ही अधिक भटकानेवाला है । यह बुद्धि संसार-सीमाके निकट आये हुए जीवको ही होती है, और समर्थ चक्रवर्ती जैसी पदवीपर आरूढ़ होनेपर भी उसका त्याग करके कर-पात्रमें भिक्षा माँगकर जीनेवाले ऐसे जीव संतके चरणोंको अनंत अनन्त प्रेमभावसे पूजते हैं, और वे जरूर ही छूट जाते हैं। __दीनबंधुकी ऐसी दृष्टि है कि छूटनेके इच्छुकको बाँधना नहीं, और बँधनेके इच्छुकको छोड़ना नहीं । यहाँ किसी शंकाशील जीवको ऐसी शंका हो सकती है कि जीवको तो बँधना कभी भी अच्छा नहीं लगता, सबको छूटनेकी ही इच्छा रहती है, तो फिर जीव क्यों बँध जाता है ! इस शंकाका इतना ही समाधान है कि ऐसा अनुभव हुआ है कि जिसे छूटनेकी दृढ़ इच्छा होती है, उसको बंधनकी शंका ही मिट जाती है। और इस कथनका साक्षी यह सत् है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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