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श्रीमद् राजवन्द्र
[पत्र ८६
इन सबमें तेरे प्रति कोई प्रेमभाव नहीं है, फिर भी भिन्न भिन्न स्थलोंमें तू सुख मान बैठा है। हे मूढ़ ! ऐसा न कर।
यह तुझे तेरा हित कहा । तेरे अन्तरमें सुख है। जगत्में कोई ऐसी पुस्तक, ऐसा कोई लेख अथवा कोई ऐसी साक्षी नहीं है जो दुःखी तुमको यह बता सके कि अमुक ही सुखका मार्ग है, अथवा तुम्हें अमुक प्रकारसे ही चलना चाहिये, अथवा सभी अमुक क्रमसे ही चलेंगे; यही इस बातको सूचित करता है कि इन सबकी गतिके पीछे कोई न कोई प्रबल कारण अन्तर्हित है।
१. एक भोगी होनेका उपदेश करता है । २. एक योगी होनेका उपदेश करता है । ३. इन दोनोंमेंसे हम किसको माने ? ४. दोनों किसलिये उपदेश करते हैं ! ५. दोनों किसको उपदेश करते हैं ? ६. किसकी प्रेरणासे उपदेश करते हैं ! ७. किसीको किसीका, और किसीको किसीका उपदेश क्यों अच्छा लगता है ! ८. इसके क्या कारण हैं ? ९. उसकी कौन साक्षी है ? १०. तुम क्या चाहते हो? ११. वह कहाँसे मिलेगा, अथवा वह किसमें है ! १२. उसे कौन प्राप्त करेगा ? १३. उसे कहाँ होकर लाओगे ! १४. लाना कौन सिखावेगा? १५. अथवा स्वयं ही सीखे हुए हो? १६. यदि सीखे हुए हो तो कहाँसे सीखे हो ! १७. जीवन क्या है? १८. जीव क्या है ! १९. तुम क्या हो ! २०. सब कुछ तुम्हारी इच्छानुसार क्यों नहीं होता ! २१. उसे कैसे कर सकोगे ! २२. तुम्हें बाधा प्रिय है अथवा निराबाधता !
२३. वह कहाँ कहाँ और किस किस तरह है ! इसका निर्णय करो।
अंतरमें सुख है। बाहर नहीं । सत्य कहता हूँ।. . .