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________________ १८५ पत्र ८६] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष वहीं तीनों कालका ज्ञान होता है, और देहके रहनेपर भी वहीं निर्वाण है । यह दशा संसारकी अंतिम दशा है । इस दशामें आत्माराम स्वधाममें आकर विराजते हैं ॥२॥ गुन १९४६ हे जीव! तू भ्रममें मत पड़, तुझे हितकी बात कहता हूँ। . सुख तो तेरे अन्तरमें ही है, वह बाहर ढूँढ़नेसे नहीं मिलेगा। वह अन्तरका सुख अन्तरंगकी सम-श्रेणीमें है। उसमें स्थिति होनेके लिये बाह्य पदार्थोका विस्मरण कर आश्चर्य भूल। सम-श्रेणी में रहना बहुत दुर्लभ है; क्योंकि जैसे जैसे निमित्त मिलते जाते हैं वैसे वैसे वृत्ति पुनः पुनः चलित होती जाती है। फिर भी उसके चलित न होनेके लिये अचल गंभीर उपयोग रख । यदि यह क्रम यथायोग्यरूपसे चलता चला जाय तो तू जीवन त्याग कर रहा है, इससे घबड़ाना नहीं, तू इससे निर्भय हो जायगा । भ्रममें मत पड़, तुझे हितकी बात कहता हूँ। यह मेरा है, प्रायः ऐसे भावकी भावना न कर । यह उसका है, ऐसा मत मान बैठ । इसके लिये भविष्यमें ऐसा करना है, यह निर्णय करके न रख। इसके लिये यदि ऐसा न हुआ होता तो अवश्य ही सुख होता, यह स्मरण न कर । इतना इसी तरहसे हो जाय तो अच्छा हो, ऐसा आग्रह मत करके रख । इसने मेरे लिये अनुचित किया, ऐसा स्मरण करना न सीख । इसने मेरे लिये उचित किया, ऐसा स्मरण न रख । यह मुझे अशुभ निमित्त है, ऐसा विकल्प न कर । यह मुझे शुभ निमित्त है, ऐसी दृढ़ता न मान बैठ । यह न होता तो मैं न फंसता, ऐसा निश्चय न कर । पूर्वकर्म बलवान हैं, इसीलिये ये सब अवसर मिले हैं, ऐसा एकांत ग्रहण न कर । यदि अपने पुरुषार्थको सफलता न हुई हो तो ऐसी निराशाका स्मरण न कर । दूसरेके दोषसे अपनेको बंधन होता है, ऐसा न मान । अपने निमित्तसे दूसरोंके प्रति दोष करना भूल जाओ । तेरे दोषसे ही तुझे बंधन है, यह संतकी पहिली शिक्षा है। दूसरेको अपना मान लेना, और स्वयं अपने आपको भूल जाना, बस इतना ही तेरा दोष है। सर्व काळ्नु छे त्यां शान, देह छतां त्यां के निर्वाण; भव छेवटनी छे ए दशा, राम धाम आवीने वस्या ॥२॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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