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________________ श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र २० हो यही इच्छा करना । प्रतिमाके पूजनेसे ही मोक्ष है, अथवा उसे न माननेसे ही मोक्ष है, इन दोनों विचारोंके प्रगट करनेसे इस पुस्तकको योग्य प्रकारसे मनन करनेतक मौन रहना । (ई) शास्त्रकी शैलीसे विरुद्ध अथवा अपने मानकी रक्षाके लिये कदाग्रही होकर कोई भी बात न कहना। (उ) जबतक एक बातको असत्य और दूसरीको सत्य मानने में निर्दोष कारण न दिया जा सके तबतक अपनी बातको मध्यस्थवृत्तिमें रोककर रखना। (ऊ) किसी भी शास्त्रकारका ऐसा कहना नहीं है कि किसी अमुक धर्मको माननेवाला समस्त समुदाय ही मोक्ष चला जावेगा, परन्तु जिनकी आत्मा धर्मत्वको धारण करेगी वे सभी सिद्धिको प्राप्त करेंगे, इसलिये पहिले स्वात्माको धर्म-बोधकी प्राप्ति करानी चाहिये । उसका यह भी एक साधन है । उसका परोक्ष किंवा प्रत्यक्ष अनुभव किये विना मूर्तिपूजाका खंडन कर डालना योग्य नहीं। (ए) यदि तुम प्रतिमाको माननेवाले हो तो उससे जिस हेतुको सफल करनेकी परमात्माकी आज्ञा है उसे सफल कर लो, और यदि तुम प्रतिमाका खंडन करते हो तो इन प्रमाणोंको योग्य रीतिसे विचार कर देखो । मुझे दोनोंको ही शत्रु अथवा मित्रमें से कुछ भी नहीं मानना चाहिये । इनकी भी एक राय है, ऐसा समझकर उन्हें इस ग्रंथको पढ़ जाना चाहिये । (ऐ) इतना ही ठीक है, अथवा इतनेमें से ही प्रतिमाकी सिद्धि हो तो ही हम मानेंगे इस तरहका आग्रह न रखना, परन्तु वीरके उपदेश किये हुए शास्त्रोंसे इसकी सिद्धि हो, ऐसी इच्छा करना। (ओ) इसीलिये सबसे पहिले विचार करना पड़ेगा कि किन किन शास्त्रोंको वीरके उपदेश किये हुए शास्त्र कह सकते हैं अथवा मान सकते हैं, इसलिये मैं सबसे पहिले इसी संबंधमें कहूँगा। (औ) मुझे संस्कृत, मागधी अथवा अन्य किसी भाषाका भी मेरी योग्यतानुसार परिचय नहीं, ऐसा मानकर यदि आप मुझे अप्रामाणिक ठहराओगे तो यह बात न्यायके विरुद्ध होगी, इसलिये मेरे कथनकी शास्त्र और आत्म-मध्यस्थतासे जाँच करना । (अं) यदि मेरे कोई विचार ठीक न लगें, तो उन्हें सहर्ष मुझसे पूछना, परन्तु उसके पहिले ही उस विषयमें अपनी कल्पनाद्वारा शंका बनाकर मत बैठना । (अ) संक्षेपमें यही कहना है कि जैसे कल्याण हो वैसे आचरण करनेके संबंधमें यदि मेरा कहना अयोग्य लगता हो तो उसके लिये यथार्थ विचार करके फिर जो ठीक हो उसीको मान्य करना। शास्त्र-सूत्र कितने हैं ! १. एक पक्ष ऐसा कहता है कि आजकल पैंतालीस अथवा पैंतालीससे भी अधिक सूत्र हैं; और उनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका इन सबको भी मानना चाहिये । दूसरा पक्ष कहता है कि कुल सूत्र बत्तीस ही हैं, और वे बत्तीस ही भगवान्के उपदेश किये हुए हैं । बाकीमें कुछ न कुछ मिलावट हो गई है; तथा नियुक्ति इत्यादि भी मिश्रित ही हैं, इसलिये कुल सूत्र बत्तीस ही मानने चाहिये । इस मान्यताके संबंधों पहिले मैं अपनी समझमें आये हुए विचारोंको कहता हूँ। दूसरे पक्षकी उत्पत्ति हुए आज लगभग चारसौ वर्ष हुए हैं। वे लोग जिन बत्तीस सूत्रोंको मानते हैं वे सूत्र इस प्रकार हैं-११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद, १ आवश्यक ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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