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________________ पत्र २०] विविध पत्र आदि संग्रह-२०वाँ वर्ष १३७ जहाँ प्रमाणसे और अनुभवसे वस्तु सत्य सिद्ध हुई वहाँ जिज्ञासु पुरुष अपने चाहे कैसे भी हठको छोड़ देते हैं। यदि यह महान् विवाद इस कालमें न पड़ा होता तो लोगोंको धर्मकी प्राप्ति बहुत सुलभ हो जाती । संक्षेपमें मैं इस बातको पाँच प्रकारके प्रमाणोंसे सिद्ध करता हूँ: १ आगम प्रमाण, २ तिहास प्रमाण, ३ परंपरा प्रमाण, ४ अनुभव प्रमाण, और ५ प्रमाण प्रमाण । १ आगम प्रमाण आगम किसे कहते हैं ? पहले इसकी व्याख्या होनेकी जरूरत है । जिसका प्रतिपादक मूल पुरुष आप्त हो और जिसमें उस आतपुरुषके वचन सन्निविष्ट हों, वह आगम है । गणधरोंने वीतरागदेवके उपदेश किये हुए अर्थकी योजना करके संक्षेपमें मुख्य मुख्य वचनोंको लेकर लिपिबद्ध किया, और वे ही आगम अथवा सूत्रके नामसे कहे जाते हैं । आगमका दूसरा नाम सिद्धांत अथवा शास्त्र भी है । गणधरदेवोंने तीर्थंकरदेवसे उपदेशकी हुई पुस्तकोंकी योजनाको द्वादशांगीरूपसे की है। इन बारह अंगोंके नाम कहता हूँ:-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, अंतकृतदशांग, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक, और दृष्टिवाद । १. जिससे वीतरागकी किसी भी आज्ञाका पालन होता हो वैसा आचरण करना, यही मुख्य उद्देश्य है। २. मैं पहिले प्रतिमाको नहीं मानता था और अब मानने लगा हूँ, इसमें कुछ पक्षपातका कारण नहीं है; परन्तु मुझे उसकी सिद्धि मालूम हुई इसलिये मानता हूँ। उसकी सिद्धि होनेपर भी इसे न माननेसे पहिलेकी मान्यताकी भी सिद्धि नहीं रहती, और ऐसा होनेसे आराधकता भी नहीं रहती। ३. मुझे इस मत अथवा उस मतकी कोई मान्यता नहीं, परन्तु राग-द्वेषरहित होनेकी परमाकांक्षा है और इसके लिये जो जो साधन हों उन सबकी मनसे इच्छा करना, उन्हें कायसे करना, ऐसी मेरी मान्यता है, और इसके लिये महावीरके वचनोंपर मुझे पूर्ण विश्वास है। ४. अब केवल इतनी प्रस्तावना करके प्रतिमाके संबंधमें जो मुझे अनेक प्रकारसे प्रमाण मिले हैं उन्हें कहता हूँ। इन प्रमाणोंपर मनन करनेसे पहले वाचक लोग कृपा करके नीचेके विचारोंको ध्यानमें रक्खें: (अ) तुम भी पार पानेके इच्छुक हो, और मैं भी हूँ; दोनों ही महावीरके उपदेश-आत्महितैषी उपदेशकी इच्छा करते हैं और वही न्याययुक्त भी है। इसलिये जहाँ सत्यता हो वहाँ हम दोनोंको ही निष्पक्षपात होकर सत्यता स्वीकार करनी चाहिये । (आ) जबतक कोई भी बात योग्य रीतिसे समझमें न आवे तबतक. उसे समझते जाना और उस संबंधमें अंतिम बात कहते हुए मौन रखना। (६) अमुक बात सिद्ध हो तो ही ठीक है, ऐसी इच्छा न करना, परन्तु सत्य ही सत्य सिद्ध
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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