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भीमद् राजवन्द्र
[आभवभावना
सप्तम चित्र
आवभावना बारह अविरति, सोलह कषाय, नव नोकषाय, पाँच मिथ्यात्व और पन्द्रह योग ये सब मिलकर सत्तावन आश्रव-द्वार अर्थात् पापके प्रवेश होनेकी प्रनालिकायें हैं।
कुंडरीक महाविदेहमें विशाल पुंडरिकिणी नगरीके राज्यसिंहासनपर पुण्डरीक और कुण्डरीक नामके दो भाई राज करते थे । एक समय वहाँ तत्वविज्ञानी मुनिराज विहार करते हुए आये। मुनिके वैराग्यवचनामृतसे कुंडरीक दीक्षामें अनुरक्त हो गया, और उसने घर आनेके पश्चात् पुंडरीकको राज्य सौंपकर चारित्रको अंगीकार किया । रूखा सूखा आहार करनेके कारण वह थोड़े समयमें ही रोगग्रस्त हो गया, इस कारण अंतमें उसका चारित्र भंग हो गया। उसने पुंडरीकिणी महानगरीकी अशोकवाटिकामें आकर औघा और मुखपत्ती वृक्षपर लटका दिये; और वह इस बातका निरंतर सोच करने लगा कि अब पुंडरीक मुझे राज देगा या नहीं ! वनरक्षकने कुंडरीकको पहचान लिया। उसने जाकर पुंडरीकसे कहा कि बहुत व्याकुल अवस्थामें आपके भाई अशोक बागमें ठहरे हुए हैं। पुंडरीकने वहाँ आकर कुंडरीकके मनोगत भावोंको जान लिया, और उसे चारित्रसे डगमगाते देखकर बहुतसा उपदेश दिया, और अन्तमें राज सौंपकर घर चला आया।
कंडरीककी आज्ञाको सामंत अथवा मंत्री लोग कोई भी न मानते थे, और वह हजार वर्षतक प्रवज्याका पालन करके पतित हो गया है, इस कारण सब कोई उसे धिक्कारते थे। कुंडरीकने राज होनेके बाद अति आहार कर लिया, इस कारण उसे रात्रिमें बहुत पीड़ा हुई और वमन हुआ उसपर अप्रीति होनेके कारण उसके पास कोई भी न आया, इससे कुण्डरीकके मनमें प्रचंड क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने निश्चय किया कि यदि इस रोगसे मुझे शांति मिले तो फिर मैं सुबह होते ही इन सबको देख लूंगा। ऐसे महादुर्ध्यानसे मरकर वह सातवें नरकमें अपयठांण पाथडेमें तैंतीस- सागरकी आयुके साथ अनंत दुःखमें जाकर उत्पन्न हुआ। कैसा विपरीत आश्रव-द्वार !!! इस प्रकार सप्तम चित्रमें आश्रवभावना समाप्त हुई।
अष्टम चित्र
संवरभावना सम्बर भावना-जो ऊपर कहा है वह आश्रव-द्वार है । और पाप-प्रनालिकाको सर्व प्रकारसे रोकना ( आते हुए कर्म-समूहको रोकना ) वह संवरभाव है।
पुंडरीक (कुंडरीककी कथा अनुसंधान ) कुंडरीकके मुखपची इत्यादि उपकरणोंको ग्रहणकर पुंडरीकने निश्चय किया कि मुझे पहिले महर्षि गुरुके पास जाना चाहिये, और उसके बाद ही अन्न जल ग्रहण करना चाहिये।
. नंगे पैरोंसे चलनेके कारण उसके पैरोंमें कंकरों और काँटोंके चुभनेसे खनकी धारायें निकलने लगी तो भी वह उत्तम ध्यानमें समताभावसे अवस्थित रहा । इस कारण यह महानुभाव पुंडरीक मरकर समर्थ सर्वार्थसिद्धि विमानमें तैंतीस सागरकी उत्कृष्ट आयुसहित देव हुआ । आश्रवसे कुंडरीककी कैसी दुःखदशा हुई और संवरसे पुण्डरीकको कैसी सुखदशा मिली !